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________________ अपभ्रंश भाषा 101 लक्ष्मीधर” ने छह तथा शेषकृष्ण ” ने प्राकृत चन्द्रिका में - 5 भाषाओं का वर्णन किया है। उसका कहना है कि एक छठा अपभ्रंश भी है किन्तु इसकी उपलब्धि नहीं होती । देश, काल के अनुसार इसके बहुत से भेद किये गये हैं। उसके अनुसार नाटकों में इसके भेद नहीं पाये जाते। साथ ही साथ वह यह भी कहता है कि इसका बहुत उपयोग नहीं है । उसका ऐसा लिखने का कारण यह हो सकता है कि वह प्राकृत के वर्णन में प्रसङ्ग के भय से अपभ्रंश में नहीं पड़ना चाहता । वह उसकी पृथक् सत्ता ही स्वीकार करता है । इसके अतिरिक्त भोजराज 54 ने स्पष्ट रूप से अपभ्रंश की सत्ता मानी है। उसका कहना है कि संस्कृत कहने से कुछ दूसरा अर्थ होता है - प्राकृत से कुछ भिन्न, इसी प्रकार कोई अपभ्रंश से एक भिन्न भाषायिक सत्ता मानता है। कुछ दूसरे लोग इन्हीं भाषाओं के साथ पैशाची, शौरसेनी और मागधी को भी उपनिबद्ध करते हैं। उसका यह भी कहना है कि इसमें से कोई दो, तीन भाषाओं से अथवा कोई सभी भाषाओं से अपना सम्बन्ध रखने में समर्थ हो सकते हैं। जिनदत्त सूरि” और अमर चन्द्र" ने भी षट्भाषा के अन्तर्गत अपभ्रंश का वर्णन किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अब तक जितने भी वर्णन किये गये हैं उससे यही विदित होता है कि अपभ्रंश भी एक भाषा है, उसका भी साहित्य है तथा सत्ता है। कहीं अपभ्रंश को भाषात्रय में स्थान दिया गया तो कहीं उसे षंट्भाषा के अन्तर्गत रखा गया, तो कुछ लोगों ने देश भाषा में ही उसे समाहित कर देना चाहा, कुछ लोगों ने संक्षेप रूप में कह दिया कि अपभ्रंश के बहुत से भेद होते हैं। दण्डी ने तो बहुत पहले भरत की विभाषा बोली को तथा साहित्य में प्रयुक्त होने वाली आभीर आदि भाषा को अपभ्रंश कहा। पूर्वोक्त कथनों से यही स्पष्ट होता है कि अपभ्रंश भाषा की भी सत्ता अन्य भाषाओं की तरह है। उसके भी विविध रूप हैं तथा एक सुसमृद्ध साहित्य है । किन्तु इस भाषा का विकास .
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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