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________________ होते हैं तब उस दोराहे पर एक मार्ग पर वह आगे बढ़ जाता है। या तो वह परम स्वार्थी तथा क्रूर बनकर मानवता के प्रति अन्याय में लिप्त हो जाता है अथवा उस टकराव से वह करुणा सीखता है, त्याग भाव से आप्लावित होता है एवं 'सर्वभूतेषु आत्मवत्' बनना शुरू हो जाता है। किन्तु होता है यह सब चिन्तन के ही बल पर। । मैंने चिन्तन का अभिप्राय यह समझा है कि सामने उपस्थित परिस्थितियों को विवेक के साथ समझना, साध्यगत आदर्शों के संदर्भ में उन पर गहराई से विचार करना तथा ऐसे सोद्देश्य बन कर अपने उस समय के कर्तव्याकर्तव्य का निर्धारण करना। इस प्रक्रिया में जितने सर्वजन हितकारी मोड़ आते हैं, उतना ही व्यक्ति समाज में महान् होता जाता है। एक अवस्था यह भी आती है जब व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को घनीभूत सामाजिकता में तिरोहित कर देता है -वह व्यक्ति और समाज की श्रेष्ठता की अवस्था होती है। मेरा चिन्तन चलता है कि मैं भी मानवीयता के उच्चस्थ मोड़ों से गुजरूं और आत्म विकास की नई मंजिलें तय करूं। इस यात्रा में मैं दुःख और सुख का वास्तविक स्वरूप समझ सकूँगा तथा समीक्षण कर सकूँगा कि सब लोग जिसे सुख की संज्ञा देते हैं, वह भला वास्तव में सुख है भी या नहीं और जिसे दुःख मानकर चलते हैं, क्या वही दुःख सही चिन्तनधारा में आत्म-जागृति का प्रेरक नहीं बन जाता है ? सुख-दुःखानुभव का समीक्षण अवश्य ही मुझे नया ज्ञान प्रदान करेगा। सुख-दुःखानुभव का समीक्षण . मुझे वीतराग देवों के इस वचन में अपार आस्था है कि सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता अतः किसी को दुःख मत दो। इसका अभिप्राय यह है कि ऐसे समाज का निर्माण करो जिसमें हिंसा का चलन एकदम बन्द हो जाय और अहिंसा ही सर्व प्रकार के आचरण का मूलाधार बन जाय। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच मूल्यात्मक चेतना की प्रबल अभिव्यक्ति के साथ ऐसा समतापूर्ण व्यवहार हो कि सारे समाज में सुख, शान्ति एवं समृद्धि का वातावरण प्रसारित हो जाय । सभी इस उक्ति में विश्वास करने लगे कि दुःख न दो, दुःख नहीं होंगे एवं सबको अपने आचरण से सुख दो ताकि स्वयं भी सदा सुख का रसास्वदन करते रहो। सुख और दुःख के अनुभव के संदर्भ में अज्ञान होने के कारण ही व्यक्ति सिर्फ अपने ही लिये सुख का वातावरण बनाना चाहने लगता है तथा उसकी उसी स्वार्थी वृत्ति का दुष्परिणाम प्रकट होता है कि वह हिंसा का आचरण करना आरंभ करता है। कई बार वह सामूहिक हित के लिये भी मात्र अज्ञान के कारण हिंसा का आचरण करना चाहता है। हिंसा का मूल ही अज्ञान होता है। इसी कारण वह यह तथ्य नहीं समझ पाता है कि तात्कालिकता को छोड़ कर हिंसा का दूरगामी प्रभाव सारे समाज को तथा स्वयं उसको भी दुःखों के महासागर में पटक देता है। मेरा यह अनुभव है कि श्रेष्ठ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये भी अपनाये गये हिंसात्मक कृत्य में हिंसा, हिंसा ही रहेगी। ___ मेरा मानना है कि सुख एवं दुःख के अनुभवों का समीक्षण करते समय हिंसा के स्वरूप को भलीभांति समझ लेना चाहिये। हिंसा का अर्थ केवल किसी भी अन्य प्राणी को प्राणविहीन करना ही नहीं है, किन्तु किसी भी प्राणी की उसकी अपनी स्वतन्त्रता का किसी भी रूप में हनन करना भी हिंसा की ही व्याख्या में सम्मिलित माना गया है। अतः आप्त पुरुषों का उपदेश है कि किसी भी ६३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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