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________________ हूँ। इसका आशय यह है कि 'मैं' आत्म रूप से शाश्वत हूँ तो शरीर रूप से विनश्वर। शरीर परिवर्तित होते रहते हैं, आत्मा वही रहती है अपने पूर्वकृत कर्मों से बंधी हुई। आज मुझे यह मानव तन मिला है—पहले भी मेरी आत्मा का कोई शरीर रहा होगा और इस तन के बाद में भी कर्म फल स्वरूप इसे कोई शरीर अवश्य प्राप्त होगा। आत्म तत्त्व की दृष्टि से मैं किसी भी शरीर में गणात्मक रूप से वही रहंगा बल्कि सिद्धशिला पर पहँच । कर भी वही रहूंगा–जो तब नहीं रहेगा, वह है शरीर और उससे संलग्न कर्म समूह । जब तक मेरी आत्मा इस संसार में विचरण करती रहेगी, पर्यायों की दृष्टि से उसके रूप परिवर्तित होते रहेंगे। आज यह आत्मा मानव तन में स्थित है –पहले किसी अन्य शरीर में थी या आगे किसी अन्य शरीर में निवास करेगी–परिवर्तन का यह एक पहलू है। दूसरा यह कि कभी आत्मा घनघाती कर्मों से लिप्त हो जाती है तो कभी निर्जरा करती हुई हलुकर्मी बन जाती है। इसी प्रकार के कई परिवर्तन भिन्न-भिन्न समयों में परिलक्षित होते हैं। संसारी आत्मा कर्मावृत्त होती है तो सिद्ध की आत्मा कर्म मुक्त। यह आत्म-स्वरूप का पर्याय भेद है। लेकिन गुण रूप से दोनों प्रकार की आत्माओं में मूल की दृष्टि से समानता भी होती है। अतः जीवनों की क्रमिकता में यही 'मैं' का स्थायी और निरन्तर अस्तित्व बना रहता है। इस वस्तुस्थिति के कारण ऐसी मनःस्थिति का निर्माण होता है जिसमें मैं अपने व अपने साथियों याने कि समाज एवं विश्व के दीर्घकालीन विकास के सम्बन्ध में स्थिर मन से विचार कर सकता हूँ तथा निष्ठापूर्वक उस पवित्र कार्य में अपने आपको सफलतापूर्वक नियोजित कर सकता हूँ। उपरोक्त विचार के आधार पर निश्चित रूप से मेरी जिज्ञासा यह तथ्य जानने के लिये जागृत होगी कि मैं पहले क्या था, कहाँ था, क्या करता था और उन सब बातों का प्रभाव इस जीवन में किस रूप में दिखाई देता है ? कारण, इस जिज्ञासा की पूर्ति होने पर ही मैं कर्म सिद्धान्त के स्वरूप एवं उसकी प्रक्रिया को भली-भांति समझ सकूँगा। ___ मैं कहाँ से आया हूँ ? इस विषयक विश्लेषण के साथ मेरे मन में सबसे पहले यह प्रश्न खड़ा हुआ है कि मैं कहाँ से आया हूँ ? यह प्रश्न मेरे ही मन में आया हो ऐसी बात नहीं है ? संभवतः यह प्रश्न प्रत्येक विचारवान् मानव के मन में उठता होगा, तभी तो शास्त्रों और सूत्रों में भी इस प्रश्न को उठाया गया है तथा उसका समुचित उत्तर भी दिया गया है। कहा है—'यहाँ इस संसार में कई मनुष्यों को होश नहीं होता जो कहते हैं कि मैं पूर्व दिशा से आया हूँ, दक्षिण दिशा से आया हूँ, पश्चिम दिशा से आया हूँ अथवा उत्तर दिशा से आया हूँ। मैं ऊपर की दिशा से आया हूँ, नीचे की दिशा से आया हूँ या अन्य दिशाओं से आया हूँ। क्योंकि ऐसा कहने वाले यह नहीं समझते कि उनकी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है। इसलिये विचारणीय यह है कि पिछले जन्म में मैं कौन था, अथवा इस जन्म से आगे जाने पर भावी जन्म में मैं क्या होऊँगा? इसका ज्ञान मैं (अ) स्वकीय स्मृति द्वारा, (ब) अतीन्द्रिय ज्ञानियों के कथन के द्वारा अथवा (स) अतीन्द्रिय ज्ञानियों के सम्पर्क से समझे हुए व्यक्तियों के समीप से सुन कर ही प्राप्त कर सकता हूँ। मैं यदि यह जान लेता हूँ, कि मेरी आत्मा पूर्व जन्म में किस शरीर में स्थित होकर किस रूप में थी अथवा पुनर्जन्म
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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