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________________ इस विकास का तब यह लक्षण स्पष्ट प्रतीत होने लगता है कि मेरी आत्म-चेतना का केन्द्रीकरण पदार्थों के केन्द्र से हट कर मूल्यों के केन्द्र पर टिकने लगता है । मूल्यों को केन्द्र में रखकर जब सद्भावना और सन्निष्ठा से गति की जाती है तब 'मैं' का मूल स्वरूप निखरने लगता है। तब 'मैं' के उस निखार पर मैं सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र्य रूप तीन रत्नों का प्रकाश फेंकता हूँ तो देखता हूँ कि मेरा 'मैं' निरन्तर प्रकाशमान होता हुआ चला जाता है । 'मैं' के ऐसे प्रकाशमान जीवन की सार्थकता इस तथ्य में प्रस्फुटित होनी चाहिये कि उसके व्यक्तित्व से निकलता हुआ प्रकाश सारे पथ पर इस तरह बिखरे कि पथ भी पूरी तरह से प्रकाशित हो तथा उस पथ पर चलने वाले भी प्रकाश को अपना सहचर व मार्गदर्शक बना सकें। वे आत्माएँ जो अरिहंतता या वीतरागता की उच्चता का अपनी आन्तरिकता में श्रेष्ठ विकास कर लेती हैं, वे ऐसा ही प्रकाश पाती और फैलाती हैं। मेरी आत्मा भी ऐसे ही प्रकाश की पुजारिन है । मूल्यात्मक चेतना की अभिव्यक्ति से आरंभ होकर सिद्धात्मा के साध्य तक पहुँच जाने को मेरी आत्मा अतीव आतुर है किन्तु उसकी आतुरता की सफलता इस तथ्य पर भी बहुत कुछ निर्भर है कि मेरे अपने चारों ओर के समाज में अहिंसा, समानता तथा सहयोग का वातावरण कितना पुष्ट और सशक्त है । मेरा 'मैं' इस समाज सेवा के साथ साध्य तक पहुँच जाने की अपनी आतुरता को कहाँ तक फलीभूत कर पायगा – यह उसके सत्पुरुषार्थ की प्रबलता पर आधारित होगा । मूल्यात्मक चेतना, सिद्धावस्था का साध्य तथा मेरी आत्मा का सत्पुरुषार्थ तीनों मिलकर यहां और वहाँ श्रेष्ठ परिवर्तन का बीजारोपण अवश्य करेंगे । समता के समरस में मैं मेरे 'मैं' के विकास को समग्र समाज के नेकास में बदलना चाहता हूँ और समाज का विकास तभी चारितार्थ होगा जब उसका समता के आधार पर नव निर्माण हो । समता के समरस में डूबने पर ही विकास के मोती हाथ लगते हैं । जब मेरी चेतना शुद्ध मानवीय मूल्यों को प्रकट करेगी और उन्हें समाज में सुप्रतिष्ठित करना चाहेगी तब उसके साथ मूल्यों के जगत् में मेरी भी गहरी पैठ होने लगेगी। मैं किसी एक मूल्य को मान्यता दूंगा तो मेरा दुहरा प्रयास प्रारंभ हो जायगा। एक ओर तो मैं चाहूंगा कि उस मूल्य को सामाजिक मान्यता मिले तथा सभी लोग उसे अपने- अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करें तो दूसरी ओर उस मूल्य पर मैं और अधिक गहरी खोज भी करना चाहूंगा ताकि उसका सृजनात्मक पक्ष अधिकतम रूप से उजागर हो सके । मेरा ऐसा प्रयास जब सामूहिक रूप लेने लगेगा तो सच मानिये कि समता - समाज की नींव भी पड़ जायेगी। ऐसे समाज का प्रमुख उद्देश्य ही यह होगा कि सभी प्राणी सच्ची सुख शान्ति तथा आत्मिक स्मृद्धि की दिशा में साथ-साथ आगे बढ़ सकें । ऐसे समाज के पारस्परिक आचरण के केन्द्र में होगी - अहिंसा । अहिंसा के मूलाधार पर ही व्यक्ति एवं समूह का आचरण केन्द्रित होगा। साध्य के साथ साधन का श्रेष्ठ होना भी अनिवार्य है । मेरा अनुभव बताता है कि अधिकांशतः हिंसा का आचरण अज्ञान दशा में ही होता है। एक अज्ञानी व्यक्ति यह नहीं देख पाता है कि वह हिंसात्मक प्रवृत्तियों में संलग्न बनकर अपने व अपने साथ सारे समाज के जीवन को कैसे-कैसे निकृष्ट विकारों से रंग देता है। समता समाज के निर्माण की भूमिका मैं दृढ़तापूर्वक मानता हूँ कि इस समाज के जीवन-व्यवहार में स्थूल हिंसा का कोई स्थान नहीं ५४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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