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________________ अनन्तगुणी वेदना शीतप्रधान नरकों में होती थी । उस वेदना का घनत्व यह है कि यदि वैसी नरक के जीव को उपरोक्त परिस्थितियों में हिमालय के बर्फीले शिखर पर खड़ा कर दिया जाय तो उसे सुख मिले तथा वहाँ उसे चैन की नींद भी आ जाय। मैंने इनके अलावा भूख, प्यास, खुजली, ज्वर, दाह, भय, शोक आदि के ऐसे दारुण दुःख भोगे हैं कि जिनकी याद मात्र से सिहरन फैल जाती है । मुझे याद है कि क्षुधा इतनी सताती जो जैसे संसार के सारे पदार्थ खा लेने के बाद भी शान्त न हो । प्यास के मारे कंठ ओष्ठ, तालु और जीभ वगैरह हर वक्त सूखे ही रहते और मन करता कि सभी समुद्रों का सारा पानी भी पी जाऊं। खुजली छुरी से खुजलाने पर भी नहीं मिटती । उस समय मुझे प्राप्त ज्ञान भी मेरे घोर दुःख का ही कारण बनता क्योंकि सभी दिशाओं से आते हुए दुःखों के कारण अग्रिम रूप से ही जान लेने से मारे भय के कंपकंपी छूटती रहती थी । परमाधार्मिक देवों द्वारा दी गई यातनाएँ भी बड़ी विचित्र होती थीं। कभी वे तपा हुआ शीशा पिलाते थे तो कभी अंगारों से लाल बनी लौहमय स्त्री से आलिंगन करवाते थे। कभी कूट शाल्मली वृक्ष के नीचे बिठा देते जिससे गिरने वाले तलवार जैसे पत्ते मेरे अंग-अंग को छेद डालते । हमारे शरीर लोहे के हथौड़ों से इस तरह कूटे जाते थे कि उस की एक बार तो लुगदी-सी बन जाती थी । वसोले से शरीर छीले जाते थे । देव हम नारकीयों को भाले में उछाल-उछाल कर पिरोते थे, भाड़ में भूनते थे, कोल्हू में पेलते थे, करौती से चीरते थे, घोर तपी हुई बालू पर फैंक देते थे, वैतरणी नदी में डुबो देते थे और इसी तरह की अनेकानेक यातनाएँ देते थे । मैं अपने नारकीय जीवन का एक अनुभव और बताना चाहता हूँ। नरक के जीवों में भी दोनों प्रकार के जीव होते हैं— सम्यक् दृष्टि एवं मिथ्या दृष्टि । सम्यक् दृष्टि जीव दूसरों द्वारा दी जाने वाली वेदना का अनुभव करते हुए सोचते थे कि हमने पिछले जन्मों में घोर पाप कर्म किये थे जिनका कुफल हम भोग रहे हैं, अतः वे उन यातनाओं को सम्यक् प्रकार से सहन करते थे तथा अपनी तरफ से दूसरे जीवों को कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न नहीं करते थे । इस रूप में शान्ति से पूर्व कर्म-योग के साथ वे नये कर्मबंध से बचना चाहते थे। दूसरी ओर मिथ्या-दृष्टि जीव क्रोधादि कषायों से अभिभूत होकर अपने पूर्व कर्मबंधन को न समझते हुए शिकारी कुत्तों की तरह आपस में उग्र हिंसक रूप से लड़ते रहते थे तथा तरह-तरह की घातक विक्रियाएँ करते रहते थे । इस तरह नारकी का जीवन अत्यन्त दुःखप्रद अवस्थाओं से गुजरा ! जन्म जन्मान्तरों के इसी क्रम में तिर्यंच गति के क्रूर कष्टों का लेखा-जोखा भी मुझे भुगतना पड़ा है। तिर्यंचगति के आयुबंध के कारण थे कि मैंने अज्ञानता से द्विमुखी मायावी आचरण रखा, ढोंग रचकर दूसरों को ठगने की चेष्टाएँ कीं, झूठ बोलने सिद्धहस्तता पाई और झूठे तोल व माप से सबको धोखा दिया । तिर्यंच गति में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति की स्थावर जीव योनियों से लेकर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय की जलचर, स्थलचर, नभचर व उरपरिसर्य तथा भुजपरिसर्य योनियों में भी मैंने जन्म लिये तथा विचित्र परिस्थितियों के अनुभव किये। इन जन्मों में भी मैंने अतीव क्रूर कष्ट सहे एवं अचिंत्य वेदनाएँ भोगीं । संसार परिभ्रमण के चक्र में ही 'मैं' जब-जब पाप पंक से न्यूनाधिक अंशों में उबरता और सत्कृत्यों से पुण्यार्जन करता, तब मनुष्य गति में भी मेरा परिभ्रमण कई बार हुआ तो कई बार देवलोकों के विलासमय आनन्द-साधनों का भी उपभोग किया। यह स्वर्ग-सुख मुझे प्राप्त हुए क्योंकि ४६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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