SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपने पास जमा कर लेते हैं अथवा उन्हें आवश्यक पदार्थ प्राप्त ही नहीं करने देते हैं। इस तरह सामाजिक अन्याय का उदय होता है। ____ मैं जब एक सामाजिक प्राणी के नाते अन्याय तथा अत्याचार की इन बनती बिगड़ती झलकियों को देखता हूं तो उस तथ्यात्मकता के साथ-साथ अपने भीतर में एक प्रकार की भावात्मकता की अनुभूति भी महसूस करता हूँ। विचार उठता है कि ऐसी टकराहट और ऐसा संघर्ष क्यों? क्यों कोई जरूरत से भी बहुत ज्यादा पा जाता है और क्यों किसी को उसकी जरूरत का अल्पांश भी नहीं मिलता? भावनाओं के ऐसे बिन्दु पर कभी-कभी मेरा मन कांप उठता है, सहज कारुणिकता जाग जाती है और मैं अपना सब कुछ उन अभावग्रस्त लोगों को दे देने के लिये तत्पर हो जाता हूँ। मेरी चेतना शक्ति तब अपनी जागृति का एक नया ही क्षण अनुभव करती है। मेरी चेतना शक्ति की ऐसी अभिव्यक्ति उन क्षणों में मुझे अपना एक अमूल्य धन लगने लगता है। मेरी अभिलाषा जागती है कि मैं अपने पास-पड़ौस का रोना-हंसना सुनूं, उन लोगों के दुःख-सुख को जानूं और उनके रोने के दुःख को कम, किंवा समाप्त कर सकू, ऐसे प्रयास प्रारंभ करूं। यह अभिलाषा जितनी बलवती होती है, मेरा आन्तरिक आनन्द बढ़ता है और ऐसा महसूस होता है कि जैसे मेरे अपने भीतर में प्रकाश की चमचमाती रेखाएँ खिंच रही हों। तब मुझे समझ में आता है कि मेरी चेतना जाग रही है, आगे से आगे प्रवाहित हो रही है और उसके उस जागरण तथा प्रवाह में मुझे प्रतीत होता है कि 'मैं' जाग रहा हूँ और बढ़ रहा हूँ। मेरी चेतना का आह्वान तब अग्रगामिता के नये आयाम ग्रहण करता है। 'मैं' की आनन्ददायी अनुभूति तथ्यों और भावनाओं के परिप्रेक्ष्य में मेरा यह 'मैं' जो जागता है, वह मुझे आनन्ददायी अनुभूति प्रदान करता है। वह आनन्द बाहर का सुखाभ्यास नहीं होता, बल्कि आन्तरिकता की गहराई से फूटने वाला सहज आत्मिक आह्लाद होता है। आनन्दानुभूति की उस वेला में मेरा 'मैं' उदंड या उद्धत नहीं होता, अपितु अपने मूल स्वरूप को पा लेने की अभिलाषा में अथक रूप से गतिशील होना चाहता है। लगता है कि उस समय मैं अपनी चेतना का सार्थक रीति से आह्वान कर रहा हूँ और मेरी वह चेतना 'मैं' के आदेश का अनुसरण करती हुई ऊर्ध्वगामी बनती जा रही है। तब मझे अपनी आध्यात्मिक प्रगति का सुख अनुभव होने लगता है। मुझे अपनी आत्मिक विगति का कटु अनुभव भी है। मैंने अपनी बढ़ती हुई जानकारी से संसार के विविध पदार्थों का ज्ञान किया तब मेरा विवेक अपनी इन्द्रियों तथा अपने मन पर नियंत्रण न रख सका। उस समय सुखदायी पदार्थों को पा लेने की अनन्त इच्छाएँ भीतर ही भीतर घुमड़ उठी कि मैं ही उनका उपयोग करूं। फिर उन इच्छाओं की पूर्ति की मृगतृष्णा ने मुझे कष्टों के मरुस्थलों में भटका दिया। मैं भ्रमजाल में बंधा भटकता रहा, तनाव को बढ़ाता रहा और अपने चेतना के प्रवाह को मन्द बनाता रहा । (आकाश के समान अनन्त इच्छाओं का भार ढोते हुए कई बार बाह्य आघातों ने मेरे भीतर को आहत किया है और मेरे 'मैं' को बाहर के सारे खोखलेपन पर पैनी नजर डालने को मजबूर भी किया है। तब वे क्षण भी मेरी चेतना की जागृति के सार्थक क्षण सिद्ध हुए हैं क्योंकि उन्हीं क्षणों में मरुस्थल में भटकती हुई मेरी आत्मा को दो बूंद अमृत मिला है जिसका रसास्वादन कर मेरे 'मैं' की अनुभूति परिपुष्ट हुई है। ४३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy