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________________ पहला सूत्र मैं चैतन्य देव हूँ। अनन्त चेतना शक्ति का स्वामी हूं। क्योंकि मेरी चेतना का स्रोत कभी भी विलुप्त नहीं होता, निरन्तर प्रवहमान रहता है । प्रवाह वैसा ही जैसे कि एक पहाड़ी झरने का होता है। झरने का जल बराबर बहता रहता है— कभी बड़े वेग से तो कभी धीमी गति से । समतल भूमि आ जाय तो उसका विस्तार दिखाई देता है और संकड़ा चट्टानों भरा मार्ग तो उस झरने की जल-धारा पतली ही नही पड़ जाती, बल्कि कभी-कभी वह चट्टानों के बीच में अदृश्य भी हो जाती है। अपनी गति तथा विस्तार की न्यूनाधिकता के बाद भी वह जल-धारा कभी भी अस्तित्वहीन नहीं होती । वह निरन्तर प्रवाहित होती रहती है और कभी न कभी नदी का रूप धारण करती ही है। कई झरने अथवा नदियाँ अपने मन्द प्रवाह के कारण भूमिगत हो जाती हैं यह दूसरी बात है । किन्तु अधिकांशतः ऐसी नदियाँ अपने प्रवाह की निरन्तरता बनाये रखकर एक न एक दिन महासागर में एकीभूत हो ही जाती हैं । मेरी चेतना भी विकास की महायात्रा में निरन्तर प्रवाहित हो रही है और उस प्रवाह का सद्भाव बना हुआ है। कारण, प्रवहमानता मेरी चेतना का मूल लक्षण है। यदि प्रवाह ही समाप्त हो जाय तो चेतना चेतना ही नहीं रह जायेगी । प्रवाह न रहे तो झरने को या नदी को झरना या नदी ही कौन कहेगा ? सतत प्रवाह ही के कारण वह जल धारा झरने अथवा नदी के रूप में मानी जाती है। ठीक ऐसा ही चेतना शक्ति का प्रवाह होता है । मेरी चेतना सतत रूप से प्रवाहित होती है, इसीलिये मैं जीव हूँ, आत्मा हूँ। यदि मूल में चेतना का अस्तित्व ही न रहे तो मैं जीवात्मा ही नहीं कहलाऊँगा । मैं सतत प्रवहमान चेतना शक्ति का स्वामी हूँ इसी कारण मैं चैतन्य देव हूँ। यह चेतना ही है जिसके माध्यम से मुझे आत्मानुभूति होती है— नित नई जागृति प्रस्फुटित होती है। मैं सचेतन हूँ, प्राणधारी हूँ तभी तो प्राणी हूँ। जीव, आत्मा अथवा प्राणी में चैतन्य का सद्भाव एक अनिवार्य शर्त है। इसके अभाव में पदार्थ होंगे, प्राणी नहीं होंगे। पदार्थ होते हैं और सदैव जड़ ही रहते हैं। वे कभी भी प्राणधारी नहीं बनते। इसी प्रकार प्राणधारी कभी भी जड़ पदार्थ नहीं बनते । इसीलिए मैं कहता हूँ कि मैं चैतन्य देव हूँ। मूल रूप में जो चैतन्य स्वरूप मेरी आत्मा का है, वैसा ही स्वरूप इस संसार की प्रत्येक आत्मा का है— छोटे से छोटे तथा बड़े से बड़े जीवधारी आत्मा का है। यही नहीं, मूल रूप में मेरा आत्म-स्वरूप ही सिद्धों, अरिहन्तों तथा महात्माओं के आत्मस्वरूप में प्रतिबिम्बित होता है। यह दूसरी बात है कि सभी आत्माएँ विकास के अनेकानेक स्तरों पर प्रतिष्ठित होती हैं और जो आत्माएँ विकास की पूर्णता को साध लेती हैं, वे सिद्धात्माएँ बन जाती हैं। तभी तो मैं मानता हूँ कि विकास के किसी भी स्तर पर गति कर रही मेरी आत्मा की चैतन्य धारा में भी सिद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेने की क्षमता विद्यमान है। पहाड़ी झरने के प्रवाह की ४१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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