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________________ के विभिन्न क्षेत्रों में अनुकूल प्रभाव पड़ेगा और समता साधक जब अपने आदर्श उदाहरण के साथ समता का प्रबल प्रचारक बनेगा तब उसकी प्रभावशाली शैली से जन-जन के जीवन में नई समता-चेतना का विकास होगा क्योंकि दूसरों को वास्तविक रीति से प्रभावित करने में शब्दों की अपेक्षा अपना प्रत्यक्ष आचरण हजार गुना अधिक काम करता है । समताचरण के तीन चरण साधुत्व की पूर्व स्थिति में समता की साधना करने वाले साधक के लिये अपनी साधना के यथोचित विकास की दृष्टि से तीन चरण स्थापित किये गये हैं, जिनके अनुसार साधक को पहले समता की उपादेयता में स्वयं की प्रतीति स्पष्ट हो, फिर वह समता की अपनी सुस्पष्ट धारणा को क्रियान्वित करे तथा तदनन्तर अपनी समदृष्टि का उच्चतम विकास साधते हुए समतादर्शी बन जाय । सम्यक् प्रतीति तथा वास्तविक पहिचान के पहले चरण के साथ साधक के अन्तःकरण में समुन्नति के लिये तीव्र आकांक्षा तथा कठोर पुरुषार्थ की भावना जाग जानी चाहिये । इन्हीं के आधार पर वह द्वितीय चरण की सुदीर्घ साधना की कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना कर सकेगा एवं तीसरे चरण की सिद्धि के विराट् क्षेत्र में प्रविष्ट हो सकेगा । इस रूप में समताचरण के तीन चरण निम्नानुसार होंगे (१) समतावादी - पहली और प्रारंभिक श्रेणी उन समता साधकों की हो जो समता-दर्शन में गहरी आस्था, नया खोजने की जिज्ञासा तथा अपनी परिस्थितियों की सुविधा समता के आचरण में सचेष्टता ग्रहण करने की हार्दिक अभिलाषा रखते हों। इस श्रेणी वालों को 'वादी' इस कारण कहा गया है कि वे समता के दर्शन एवं व्यवहार पक्षों का सर्वत्र समर्थन एवं प्रचार करते हों एवं सबके समक्ष समताचरण की श्रेष्ठता को जानने, मानने तथा तदनुसार अपने-अपने व्यवहार को ढालने का सदाशयपूर्ण आग्रह करते हों । स्वयं भी आचरण के क्षेत्र में अग्रगामी बनने की तैयारी करते हों एवं दूसरों को भी उसके लिये तैयार होने की प्रेरणा देते हों। यह नहीं कि एक समतावादी सिर्फ समता का वाद ही करेगा और समताचरण को स्वीकार किन्हीं भी अंशों में नहीं करेगा। वह समता का वाद करते हुए आचरण के क्षेत्र में भी पग धर देगा, लेकिन अपनी परिस्थितियों की विवशता से आचरण की उग्रता का पालन नहीं कर सकेगा। उसके हृदय में समताचरण को पूर्णता प्रदान करने की तीव्र अभिलाषा में कोई न्यूनता नहीं होगी । समतावादी श्रेणी के साधकों के लिये निम्न नियम आचरणीय हो सकते हैं - (अ) विश्व में रहने वाले समस्त प्राणियों में मूल स्थिति को स्वीकार करना तथा गुण व कर्म के अनुसार उनका वर्गीकरण मानना । अन्य सभी विभेदों तथा विषमताओं को अस्वीकार करना और गुण कर्म के विकास से व्यापक समतापूर्ण स्थितियों के निर्माण का संकल्प स्वीकार करना । (ब) समस्त प्राणीवर्ग में एकता मानते हुए प्रत्येक के स्वतंत्र अस्तित्व को भी स्वीकारना तथा अन्य प्राणों के कष्ट क्लेश को स्व-कष्ट के समान मानना । (स) किसी भी पद को महत्त्व देने के स्थान पर सदा कर्त्तव्यों को अधिक महत्त्व देने की प्रतिज्ञा करना । (द) सप्त कुव्यसनों को धीरे-धीरे ही सही किन्तु त्यागते रहने की दिशा में आगे बढ़ना । (य) प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व कम से कम एक घंटा नियमित रूप से समतादर्शन की स्वाध्याय, चिन्तन, आत्मालोचना में व्यतीत करना तथा उस प्रवृत्ति को समीक्षण ध्यान के स्तर तक ले जाना। (र) कदापि और किन्हीं भी परिस्थितियों में आत्मघात नहीं करने एवं प्राणीघात को ४५६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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