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________________ (८) अनासक्त भाव - सत्ता या सम्पति में आसक्ति रखने से उन पर तृष्णा भड़कती है और उनके संचय की मूर्छा पैदा होती है इसलिये समता साधक को सदा अनासक्त भाव का अभ्यास करना चाहिये। ऐसा करने से प्राप्त सत्ता या सम्पत्ति के दुरुपयोग की मनोवृत्ति नहीं बनेगी तथा कर्त्तव्य पालन के प्रति जागरूकता निरन्तर बनी रहेगी । (६) सेवा की मनोवृत्ति - एक समता साधक अपने को प्राप्त सम्पत्ति एवं सत्ता को मानव सेवा और प्राणी सेवा का साधन मानता है। उसकी सेवा की मनोवृत्ति इस रूप में विकसित हो जाती है कि प्राप्त सम्पत्ति और सत्ता के प्रति उसका तनिक भी ममत्व नहीं रहता, बल्कि उसे वह सेवा के कार्यों में समता भाव से नियोजित कर देता है । वह इनका संचय भी अपने पास नहीं बढ़ाता और अधिकांश रूप से अपनी आवश्यकताओं को कम करके अपने लिये आवश्यक साधनों को भी अपने से ज्यादा आवश्यकता वालों को हर्षपूर्वक वितरित कर देता है । अनासक्त भाव की भूमिका पर निर्मित उसकी सेवा की मनोवृत्ति अटूट बन जाती है । (१०) सरल व्यक्तित्व—समता का साधक एक ओर व्यक्ति व समाज की विकारपूर्ण विषमता से संघर्ष करता है और क्रान्ति द्वारा मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करना चाहता है तो दूसरी ओर अपने व्यक्तित्व को अत्यन्त सरल और विनम्र बनाये रखता है। सादगी, सरलता तथा विनम्रता में विश्वास रखना तथा नये सामाजिक मूल्यों की रचना में सक्रिय बने रहना – इसे वह अपना पवित्र कर्त्तव्य मानता है ताकि अपने सरल व्यक्तित्व से समतामय सरलता का प्रसार हो । (११) स्वाध्याय और चिन्तन - मनुष्य हर समय किसी न किसी कार्य में प्रवृत्ति करता रहता है अतः उसे उसी समय न तो अपने काम की उचितता या अनुचितता का निर्णय निकालने का अवसर मिलता है और न ही उसके परिणामों का विश्लेषण करने की सुविधा । ये दोनों कार्य नियमित स्वाध्याय एवं चिन्तन की प्रवृत्तियों से ही पूरे किये जा सकते हैं। स्वाध्याय से यह ज्ञान और भाव मिलेगा कि किस प्रकार की प्रवृत्तियां शुभ और उपादेय होती हैं तथा किन अशुभ प्रवृत्तियों में मनुष्य को प्रवृत्त नहीं होना चाहिये । चिन्तन की धारा में प्रवृत्तियों की शुभाशुभता का अंकन भी हो सकेगा तो प्रवृत्तियों के परिणामों पर भी दृष्टिपात करके अपनी भावी प्रवृत्तियों की रूपरेखा निर्धारित की जा सकेगी। (१२) कुरीतियों का त्याग — जीवन में व्यावहारिक दृष्टि से कुरीतियां वे ही होती हैं या कहलाती हैं जो किसी न किसी रूप में विषमता पैदा करती हैं। रूढ़ परम्पराओं या कुरीतियों का निर्वाह दंभी और निहित स्वार्थी इसलिये करते हैं कि उनके माध्यम से सार्वजनिक जीवन में वे अपनी झूठी प्रतिष्ठा बनाये रखते हैं । सामान्य जन के लिये कुरीतियां सद्गुणों और श्रेष्ठता का हास करने वाली होती हैं । इस कारण समता साधक को स्वयं कुरीतियों का त्याग करना चाहिये तथा जीवन में इनके प्रचलन को रोकने का कठिन प्रयास भी जुटाना चाहिये (१३) नैतिकता का पालन - चाहे कोई भी व्यवसाय या व्यापार हो अथवा सेवा वृत्ति या अन्य कार्य—उसमें समता साधक को सदा शुद्ध नीति याने नैतिकता का पालन करना चाहिये । व्यापार को जब सीधा और सच्चा नहीं रखा जाता — उसमें कपट और मायाचार का पुट मिला दिया जाता है तब शोषण और लूट का व्यवहार बन जाता है। जहां अपने श्रम के रूप में लाभांश होना चाहिये, वहां आज व्यवसाय और व्यापार लाभ लूट का पर्याय बन गया है जो कतई ४५६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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