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________________ यह है । यह 'सु' ही समता का विवेक सम्पन्न वाहक होता है । ( स ) जी ओ और जीने दो सिद्धान्त अहिंसक जीवन की प्रतिकृति है । समता सिद्धान्त की यह प्रमुख मान्यता है कि संसार के सभी मनुष्य, बल्कि सभी प्राणी अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं तथा कोई चाहे कितना ही शक्तिशाली हो, किसी दूसरे का अस्तित्व मिटाने का उसको कोई अधिकार नहीं है। वस्तुतः उसका यह कर्त्तव्य होता है कि वह अपनी शक्ति को प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा में नियोजित करे। यह रक्षा का भाव करुणा और अनुकम्पा से उपजता है। समान कर्मण्यता, समान श्रेष्ठता और समान हार्दिकता का स्पर्श दुर्बल जीवन में नये प्राणों का संचार कर देता है । - इस अहिंसक जीवन शैली में इस सीमा और मर्यादा का पालन करना होता है कि एक अहिंसक कहीं भी किसी अन्य जीवन के साथ टकराव की स्थिति में न आवे तथा सबको 'आत्मवत्' समझे। अपनी आत्मा वैसी सबकी ही आत्मा ऐसा अनुभाव तब पैदा होता है जब मनुष्य अपने दायित्वों के प्रति सजग और सावधान हो जाता है। सब जीवों के प्रति समान रूप से स्नेह, सहानुभूति एवं सहृदयता की वर्षा करने में ही समता की तरल सार्थकता रही हुई है। प्रत्येक प्राणी के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारने से ही मनुष्य के समूचे जीवन में एक ऐसा समतामय परिवर्तन आता है जो सारी जीवन विधा को ही बदल देता है। ऐसे मनुष्य में कभी दंभ या हठवाद नहीं भड़कता, क्योंकि उसके विचार में विनम्रता समा जाती है । वह कभी यह नहीं मानता कि मैं ही सब कुछ हूं। वह सबका समादर करता है, इसलिये वह सबके सुख दुःख का सहभागी भी होता है । अहिंसक जीवन शैली की गुण सम्पन्नता समूचे वातावरण को समता के अमृत से आप्लावित बना देती है— विभोर कर देती है। (स) यथायोग्य वितरण - यह सही है कि जड़ पदार्थों के प्रति मनुष्य की मूर्छा घटनी और मिटनी चाहिये लेकिन यह उतना ही सही है कि जीवन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना कोई जीवन चल नहीं सकता और जब इन्हीं जीवनोपयोगी पदार्थों के अधिकार के सम्बन्ध में अन्यायपूर्ण नीति चलती हो तो पहला काम उसे मिटाना होगा । मूल आवश्यकताएं होती हैं—भोजन, वस्त्र और निवास । सभी जीवनधारियों की मूल आवश्यकताएं पूरी हो – यह पहली बात, परन्तु दूसरी बात भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है कि वह पूर्ति विषम नहीं होनी चाहिये जो पास्परिक ईर्ष्या और द्वेष की कटुता को पैदा करे। यही कारण है कि समता के सिद्धान्त दर्शन में समस्त जीवनोपयोगी पदार्थों के यथाविकास यथायोग्य वितरण पर बल दिया जाता है। यथाविकास एवं यथायोग्य वितरण का लक्ष्य यह होगा कि जिसको अपनी शरीर दशा, धंधे या अन्य परिस्थितियों के अनुसार जो योग्य रीति से चाहिये, वैसा उसे दिया जाय । यही अपने तात्पर्य में सम वितरण होगा। अब जहां सम वितरण का प्रश्न है— ऐसी सामाजिक व्यवस्था भी होनी चाहिये जो ऐसे वितरण को सुचारू रूप से चलावे । इस दृष्टि से वितरण को सुचारू बनाने के लिये उत्पादन के साधनों पर भी किसी न किसी रूप में समाज का नियंत्रण आवश्यक होगा ताकि व्यक्ति की तृष्णा वितरण की व्यवस्था को अव्यवस्थित न बनादे । उपभोग परिभोग के पदार्थों की स्वेच्छापूर्वक मर्यादा बांधने से भी सम वितरण में सुविधा हो सकेगी। मूल आवश्यकता के अलावा सुविधापूर्ण पदार्थों का भी वितरण ऐसा हो जो आर्थिक विषमता का चित्र न दिखावे । कारण, पदार्थों का अभाव उतना घातक नहीं होता जितना पदार्थों का विषम वितरण, अतः यथाविकास यथायोग्य वितरण का सिद्धान्त मान्य किया जाय । (द) संपरित्याग में आस्था - समता के एक साधक को संपरित्याग में सदा आस्था रखनी चाहिये तथा अवसर आवे तब सर्वस्व त्याग की तत्परता ४४४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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