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________________ इस योजना पर उसी अध्याय में आगे जाकर प्रकाश डाला जायगा कि समता साधकों को समता प्रसार के लिये कैसे तत्पर बनाया जाय और कैसे समता समाज के नव निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार की जाय। व्यवहार की योजना के पहले समता के विचार के सभी पक्षों पर गहराई के साथ चिन्तन-मनन करके तत् सम्बन्धी सम्यक् निर्णायक शक्ति को अवश्य ही जागृत बना लेनी चाहिये जो प्रत्येक चरण पर आत्माधारित सम्बल का रूप ले सकेगी। समता के दार्शनिक स्वरूप को निम्न चार वर्गों के रूप में समझ कर वैचारिक एकरूपता एवं व्यावहारिक कार्यक्षमता का निर्माण किया जाना चाहिए (१) सिद्धान्त दर्शन–समता का समारंभ भी स्वयं से शुरू होना चाहिये। पहले हम निज को सम बनावे अर्थात् सम सोचें, सम जानें, सम माने, सम देखें और सम करें। सम का अर्थ होता है समानता याने सन्तुलित । एक तुला के दोनों पलड़े जब समान होते हैं तब उसे सन्तुलित कहा जाता है। वह तुला सन्तुलित है याने बराबर तोल रही है जिसका सही संकेत मिलता है उस तुला के कांटे से। तुला के समान जब मन का कांटा भेद को भूलकर और केन्द्रित बनकर वस्तु स्थिति को देखता है, उस पर सोचता है एवं तब तदनुकूल करने का निर्णय लेता है वैसे मन को सन्तुलित कहा जाता है। ऐसा सन्तुलन कब रह सकता है ? जब मन इच्छाओं का दास बनकर न भटकता हो बल्कि संयम का आराधक बनकर एक निष्ठा अपना लेता हो। अपने हित पर चोट भी पड़े तब भी मन का सन्तुलन न बिगड़े -ऐसा अभ्यास संयम कराता है। संयम से सम किसी भी स्तर पर टूटता नहीं है। यदि सम टूट जाय या दुर्बल हो जाय तो विषमता तेज प्रहार करने से नहीं चूकती और उसके प्रहार से आहत होकर मन स्वार्थ, भोग एवं विकार से पुनः घिर जाता है। अतः साधे गये सम की सरक्षां होती है संयम से तथा संयम सदढ बनता रहता है त्याग से। त्याग का अर्थ है जो अपने पास है उसे किसी प्रयोजन के हित में छोड़ना। ऐसा छोड़ना हृदय को एक अलग ही प्रकार का आनन्द देता है। इसलिये यह त्याग ही समता का पीठबल होता है। त्याग और भोग ये जीवन के दो पहलू हैं। एक समता का वाहक है तो दूसरा विषमता का जनक। त्याग के धरातल पर निर्मित हृदय की उदारता से ही समता का प्रसार किया जा सकता है। जबकि भोग मनुष्य को उसकी आन्तरिकता से हटाकर उसे उसके शरीर से बांधता है, परिग्रह की मूर्छा में पटकता है और जड़ ग्रस्त स्वार्थों की अंधी दौड़ में घुटने तुड़वाता है। राग द्वेष और विषय कषाय की आंधियों में आत्मा को धकेल कर वह उसे अविचार पूर्वक अन्याय, अनीति और अत्याचार की राह पर आगे कर देता है। इसलिये अहिंसक जीवन प्रणाली को अपनाने तथा सत्य की शोध में निकल पड़ने के बाद स्वाभाविक और स्वैच्छिक रूप से जो उत्कृष्ट त्याग उभरता है, वह त्याग ही समता सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु है। यह कह सकते हैं कि जितना ऊंचा त्याग, उतनी ही ऊंची समता। समता की साधना के समय विचार एवं कार्य दृष्टि निरन्तर इसी केन्द्र बिन्दु पर लगी रहनी चाहिये। त्याग समतल पर अंकुरित होकर कितनी ऊंचाई तक उठ सकता है—उसकी कोई सीमा नहीं है—अवसर और भावना से ही उसका मूल्यांकन किया जा सकता है। ऐसे त्याग के बल पर ही समता का उच्चादर्श उपलब्ध किया जा सकता है। त्याग की यह सामान्य निष्ठा कही जायगी जब मैं यह प्रण लूं कि मैं किसी भी दूसरे प्राणी के हित पर कतई आघात नहीं करूंगा। किन्तु त्याग की यह विशेष निष्ठा होगी और उस निष्ठा की उच्चता किसी भी सीमा तक निखर सकती है जब मैं ४४२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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