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________________ करता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि वह अपने साथी मनुष्यों के संस्कारों, स्वभावों तथा कृत्यों से स्वयं प्रभावित होता है तथा आयु वृद्धता के साथ वह भी अपनी वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों का प्रभाव अपने साथियों पर याने कि समाज पर छोड़ता है। व्यक्ति और समाज इस रूप में परस्पर सम्बद्ध रहते हैं। इस सम्बद्ध स्थिति में ही नवजात शिशुओं के जीवन का श्रीगणेश और विकास होता है और इस तरह जीवन की क्रमबद्धता चलती रहती है। ये परिस्थितियां ही मनुष्य को सामाजिक प्राणी का रूप देती हैं। मनुष्य का सम्पूर्ण बाह्य जीवन एक प्रकार से इसी सामाजिक धरातल पर गतिशील होता है। समाज में कई व्यक्ति होते हैं भिन्न भिन्न संस्कारों, स्तरों और स्वभावों के। इन भिन्नताओं में क्या सही है और क्या गलत है—जब तक ऐसा निर्णय लेने की बुद्धि और शक्ति न हो, तब तक यह समझ में नहीं आ. सकता कि क्या ग्रहण किया जाना चाहिये और क्या छोड़ दिया जाना चाहिये? इस कारण जीवन में निर्णय शक्ति का विकास हो—यह पहली आवश्यकता है, जो हर समय घटित होती हुई परिस्थितियों में निर्णय ले सके कि जीवन का वास्तविक स्वरूप क्या होना चाहिये तथा कौन कौनसे मानवीय मूल्यों से उसे संवार कर एक स्वस्थ जीवन और एक स्वस्थ समाज की रचना की जा सकती है ? चारों ओर फैली विविधताओं के बीच में एकता के सूत्र यही सम्यक् निर्णायक शक्ति खोज सकती है तथा समता के सूत्रों को भी यही शक्ति एक साथ संयोजित कर सकती हैं। इसी दृष्टि से जीवन को समतामय बनाने का उल्लेख किया गया है। यों मानिये कि व्यक्ति और समाज के जीवन का परम और चरम लक्ष्य समता है और समता की सृष्टि के लिये सम्यक् निर्णायक शक्ति की पहली और आखिरी आवश्यकता है। व्यक्ति अपने प्रत्येक चरण पर अपने जीवन और समाज के जीवन के प्रति सजग दृष्टि बनाये रखे कि जो भी घटित हो, वह समता के उच्चादर्श की ओर आगे बढ़ाने वाला हो और क्या कार्य इस आदर्श के अनुकूल हैं और क्या कार्य प्रतिकूल —इसका उसी चरण पर सम्यक् निर्णय भी लिया जाता रहे ताकि एक भी चरण मार्ग से भटके नही। जीवन की वास्तविकता इस प्रकार सम्यक् निर्णायक शक्ति और समता के उच्चादर्श के रूप में ढलनी चाहिये। इस वास्तविकता-बोध के बाद आज के व्यक्तिगत जीवन की मीमांसा और सामाजिक जीवन की समीक्षा करें। वर्तमान मानव जीवन का आरंभ होता है गर्भावस्था में उत्त्पत्ति के साथ । गर्भ से ही उस जीवन का जो निर्माण शुरु होता है वह जन्म के बाद तक चलता रहता है। अतः प्रारंभ से ही इस लक्ष्य को ध्यान में रखा जाय कि बालक में निर्णायक शक्ति का विकास हो। वैसे बालमनोविज्ञान की दृष्टि से यह माना जाने लगा है कि शिक्षा का उद्देश्य जीवन को इस या उस दिशा में मोड़ना नहीं होना चाहिये । शिक्षा का यही उद्देश्य हो कि बालक के मन और इन्द्रियों का ऐसा स्वस्थ विकास कर दिया जाय कि वह अपनी प्रगति की दिशा का निर्णय लेने में स्वयं सक्षम हो। वस्तुतः प्रारंभिक संस्कारों और शिक्षा का यही उद्देश्य होना चाहिये। यदि कोई खास दिशा, शिक्षा या गति बालक के मन पर थोप दी जाती है तो उसका स्वस्थ विकास विवशता के भार के नीचे दब जायगा और उसकी जीवनी शक्ति पंगु बन जायगी। यह सही है कि बालक असहाय होता है और उसे भिन्न भिन्न स्तरों पर अपनी माता, अपने परिवार, अपने संगी साथी और अपने समाज की सहायता की अपेक्षा होती है किन्तु वह सहायता उसके लिये रचनात्मक होनी चाहिये। इसे एक उदाहरण से समझिये। सड़क के किनारे पर एक लंगड़ा बैठा हुआ है, उसे अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिये आपकी ४३१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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