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________________ बना कर एकावधानता का अभ्यास करते हैं। मंत्र के माध्यम की दृष्टि से महामंत्र ‘णवकार मंत्र' का सम्बल ग्रहण किया जा सकता है। इस महामंत्र के प्रथम पद की ध्वनि के आधार पर एकावधानता की साधना के द्वारा अन्तप्रवेश के साथ वृत्तियों के केन्द्र को व्यवस्थित रूप से सक्रिय बनाया जा सकता है। शब्द-ध्वनि शब्द से सम्बन्धित तरंगों को उद्वेलित करती है। शब्द-ध्वनि की ये तरंगें जिस दिशा में प्रसारित होती है, उस दिशा की आसपास की ध्वनियाँ प्रकम्पित हो जाती हैं। इस प्रकार का ध्वनि-प्रकम्पन प्रत्येक स्थान पर होता है और इस प्रकम्पन को साधक अपना सहायक बना सकता है। ध्वनि के प्रकम्पन बाह्य आकाश मंडल में यथायोग्य दूरी तक पहुँचते हैं और साधक के लिए इन प्रकम्पनों का सम्बल बहुत ही महत्त्व का होता है। एक भी ऐसा प्रकम्पन यदि प्रवाह बनकर आन्तरिक अवस्थान में प्रवाहित हो जाय तो आन्तरिक स्थानों के अनेक केन्द्रों में सुशुप्त बनी अनेक शक्तियों को जागृत बनाने का कार्य हो सकता है। इस जागृति के फलस्वरूप एकावधानता की शक्ति बलवती बनती है, एकावधानता के प्रयोग सफल होते हैं। तथा समीक्षण ध्यान की भूमिका का सार्थक निर्माण हो जाता है। इसलिये महामंत्र के प्रथम पद की ध्वनि का प्रारंभ करते हुए पहले उच्च स्वर, फिर मध्यम स्वर तथा अन्त में जघन्य स्वर में उच्चारण किया जाना चाहिये। इस क्रम के बाद मानस स्वर व उसके अन्त में भावप्रधान अर्थ स्वर की स्थिति में ध्वनि परिणत हो जानी चाहिये। इससे भावोर्मियाँ अधिकाधिक क्रियाशील हो जाती हैं। महामंत्र की ध्वनि के आधार पर एकावधानता के प्रयोग के समय तार-स्वर का रूप इस प्रकार होना चाहिये 'णमो अ....रि....हं....ता....णं!' इस प्रकार तार स्वर का उच्चारण कम से कम ग्यारह बार लयबद्ध गति से चलना चाहिये। प्रत्येक ध्वनि के प्रारंभ से लेकर ध्वनि समाप्ति तक उच्चारण एक समान चलना चाहिये। इन ग्यारह तार स्वर के बाद ग्यारह मध्यम स्वर का उच्चारण होना चाहिये 'णमो अ....रि....हं....ता....णं'। एक समान स्वर की पद्धति गतिमान रहनी चाहिये । उपयोग की अवस्था भी मध्यम स्वर के प्रारंभ से लेकर अन्त तक अस्खलित रहनी चाहिये। उसके बाद धीमे और जघन्य स्वर में ‘णमो अरिहंताणं' का ग्यारह बार पूर्वानुसार उच्चारण होना चाहिये। तदनन्तर ध्वनि का स्वर अपने कर्णगोचर न हो इस प्रकार मानस स्वर में ही ग्यारह बार जाप किया जाय । मानस स्वर का अर्थ है कि मन में ही प्रथम पद का उच्चारण हो, मन में ही उसका जाप हो, मन ही उसका श्रवण करे तथा मन ही लयबद्ध रीति से उसके साथ तल्लीन बन जाय। यह मन के स्वर की गति अखंडित रूप से चलनी चाहिये। फिर क्रम आयेगा अर्थ स्वर का। जिसमें भावप्रधान मंत्र के अर्थ का भावों में ही उच्चारण किया जाय । इस अवस्था में प्रथम पद का भाव ही साक्षी के रूप में श्रवण करने में आवे। इन भावों के साथ में उपयोग की अवस्था निरन्तर उपस्थित रहनी चाहिये । यह प्रक्रिया भी पहले की तरह ग्यारह की गिनती के साथ भावात्मक रूप से की जानी चाहिये । इस विधि से ध्वनियों में तार स्वर की ध्वनि तरंगें छःओं दिशाओं में न्यूनाधिक परिमाण में प्रवाहित हो जाने के बावजूद बाह्य दिशाओं में अधिकांश रूप में प्रसृत हो जाती है। उसके कारण बाहर की ध्वनियाँ सक्रिय बन जायेगी। गौण रूप से यह ध्वनि भीतर के अवयवों को स्पर्श करेगी एवं अन्य तंत्रों को प्रकम्पित २०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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