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________________ हूं। मैं सर्व संग रहित अमूर्त हूं। मैं ज्ञाता हूं, विज्ञाता हूं और अनन्त ज्ञान, दर्शन तथा अनन्त सुखों से सम्पन्न हूं। मैं अरूपी हूं अतः मेरे स्वरूप का वर्णन रूपी शब्दों द्वारा संभव नहीं है। ऐसा है मेरी आत्मा का मूल स्वरूप और ऐसा ही होता है सिद्धात्माओं का सदा काल वर्तता हुआ स्वरूप जो रूपी न होकर अरूपी होता है। वे अनन्त सुखों में विराजमान रहती हैं। उनके ज्ञान और सुख के लिये कोई उपमा नहीं दी जा सकती है क्योंकि संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसके साथ उनके ज्ञान और सुख की उपमा घटित हो सके। उनका स्वरूप अरूपी होता है, उसका वर्णन रूपी शब्दों के माध्यम से नहीं किया जा सकता है। मैं अनश्वर ओम् हूं = मैं अनश्वर ओऽम् हूं। ओऽम् शब्द पांच अक्षरों से बना है-अ अ आ उ तथा म् और ये पांचों अक्षर महान् आध्यात्मिक पदों के प्रतीक हैं जो इस प्रकार हैं –अ = अरिहंत, अ अशरीरी (सिद्ध), आ = आचार्य, उ = उपाध्याय एवं म् = मुनि (साधु) । इन अक्षरों की संधि इस प्रकार है—अ + अ = अ, आ + उ = ओ तथा ओ+म् =ओम् । इस प्रकार ओंकार पांचों पदों का प्रतीक संक्षेप हो गया। ओंकार से कुछ बड़ा पद होता है – असिआउसा, जो पांचों पदों के प्रथमाक्षर से मिल कर बना है। मैं अपनी आत्मा के मूल स्वरूप की दृष्टि से पंच परमेष्ठी हूं। ये ही पांचों पद पंच परमेष्ठी के नाम से उल्लिखित किये जाते हैं। ये पद पांच अवश्य हैं, किन्तु हैं सभी पद इसी आत्मा के । अपने परम स्वरूप अर्थात् उत्कृष्ट आध्यात्मिक स्वरूप में अवस्थित आत्मा को ही परमेष्ठी कहा जाता है । ये पांचों पद आत्मा की ही विभिन्न गुण अवस्थाएं हैं। इन गुण-अवस्थाओं के उल्लेख का क्रम इस प्रकार रखा गया है— सबसे पहिले अरिहन्त । यद्यपि इस क्रम में सिद्ध पद का पहिले उल्लेख होना चाहिये क्योंकि अरिहन्त चारों घाती कर्मों का ही नाश करते हैं, जब कि सिद्ध आठों कर्मों का नाश करके सर्वथा कर्म-मुक्त हो जाते हैं । किन्तु सिद्ध पद को दूसरे क्रम पर इस दृष्टि से रखा गया है कि स्वयं सिद्ध–अवस्था का ज्ञान भी अरिहन्त के द्वारा ही होता है तथा आत्मोद्वार का सम्पूर्ण उपदेश भी अरिहन्त के द्वारा ही मिलता है । अतः पहले क्रम पर अरिहन्त तथा दूसरे क्रम पर सिद्ध पद को रखा गया है। तीसरा पद आचार्य का है व चौथा उपाध्याय का पांचवां पद सर्वविरति साधु का है। इस प्रकार इन पांचों पदों को वन्दनीय माना गया है तथा इस वन्दन को महामंत्र की संज्ञा दी गई है जो इस प्रकार है – अरिहन्तों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, लोक में स्थित सर्व साधुओं को नमस्कार । यह महामंत्र का मुख्यभाग है तथा इसी के अन्तिम भाग इन नमस्कारों की महत्ता स्पष्ट की गई है जो इन शब्दों में है— ये पांचों नमस्कार सर्व पापों को नष्ट करने वाले हैं, सर्व मंगलों में प्रथम मंगल रूप होते हैं । इसी महामंत्र का संक्षिप्त रूप है— असिआऊसा नमः ऐसा कहा जाता है, पर महामन्त्र के साधक को तो नमस्कार मन्त्र के पांच पदों का पूरा उच्चारण करना चाहिये। क्योंकि जिनेश्वरों ने जैसा कहा, मन्त्र को उसी रूप में बोलना चाहिए तथा अति संक्षिप्त रूप है ओम् नमः इन पांचों आध्यात्मिक पदों को अथवा आत्मोत्थान की इन पांच उत्कृष्ट अवस्थाओं को नमस्कार करना परम मंगलू, परम उत्तम तथा परम शरण रूप माना गया है। ऐसा क्यों है ? यह विषयवस्तु गहराई से समझने लायक है । यह अटल नियम है कि गुण गुणी के बिना नहीं टिकता तथा गुणी के माध्यम से ४१६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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