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________________ ऊपर सदा काल के लिये अरुण ज्योति रूप बनकर अवस्थित हो जाती है। मैं मुक्तात्मा हो जाता हूं और पुनः इस संसार में किसी भी रूप में किसी भी प्रयोजन से प्रत्यावर्तित नहीं होता हूं, अपितु किसी भी प्रकार से इस संसार से सम्बन्धित भी नहीं रहता हूं। मैं शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध हो जाता हूं। सिद्ध पद के ये पन्द्रह प्रकार माने गये हैं—(१) तीर्थ सिद्ध–जीव, अजीव आदि तत्त्वों की प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकरों के वचन और उन वचनों को धारण करने वाला चतुर्विध संघ तीर्थ कहलाते हैं अथवा यो कहें कि जिससे संसार रूपी समुद्र को तैर कर पार कर लिया जाय, वह तीर्थ है। इस प्रकार के तीर्थ की विद्यमानता में जो आत्माएं सिद्ध होती हैं, वे तीर्थ सिद्ध कहलाती हैं। (२) अतीर्थ सिद्ध तीर्थ की उत्पति होने से पहिले या तीर्थ का विच्छेद हो जाने पर बीच में जो आत्माएं सिद्ध होती हैं, वे अतीर्थ सिद्ध कहलाती हैं। जैसे ऋषभदेव तीर्थंकर की माता मरुदेवी तीर्थ की उत्पत्ति होने से पहिले ही मोक्षगामी बन गई थीं। (३) तीर्थंकर सिद्ध तीर्थंकर पद प्राप्त करके मोक्ष में जाने वाली आत्माएं तीर्थंकर सिद्ध होती हैं। (४) अतीर्थंकर सिद्ध - सामान्य रूप से केवल ज्ञान प्राप्त करके जो आत्माएं मोक्ष प्राप्त करती हैं, वे अतीर्थंकर सिद्ध कहलाती हैं। (५) स्वयंबुद्ध सिद्ध– दूसरे के उपदेश के बिना स्वयंमेव बोध प्राप्त करके सिद्ध हो जाने वाली आत्माएं स्वयं बुद्ध सिद्ध होती हैं। (६) प्रत्येक बुद्ध सिद्ध–जो किसी के उपदेश के बिना ही किसी एक पदार्थ को देखकर दीक्षा धारण करके मोक्ष गामी बन जाती हैं, वे आत्माएं प्रत्येक बुद्ध सिद्ध हो जाती हैं। स्वयंबुद्ध एवं प्रत्येक बुद्ध सिद्धों में समानता होते हुए भी कुछ पारस्परिक विशेषताएं होती हैं जो इस प्रकार हैं—(अ) बोधिकृत विशेषता -स्वयंबुद्ध को बाहरी निमित्त के बिना ही जाति स्मरण (पूर्वभव दर्शन) आदि ज्ञान से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। स्वयं बुद्ध भी दो प्रकार के होते हैं –तीर्थंकर और तीर्थंकर व्यतिरिक्त (प्रत्येक बुद्ध सिद्ध)। प्रत्येक बुद्ध को किसी भी बाहरी कारण के निमित्त से वैराग्य उत्पन्न होता है जैसे बैल, बादल आदि को देखकर। प्रत्येक बुद्ध दीक्षा लेकर अकेले ही विचरण करते हैं। (ब) उपधिकृत विशेषता–स्वयंबुद्ध, वस्त्र, पात्र आदि बारह प्रकार की उपधि (उपकरण) वाले होते हैं और प्रत्येक बुद्ध जघन्य दो प्रकार की और उत्कृष्ट नौ प्रकार की उपधि वाले होते हैं। वे वस्त्र नहीं रखते किन्तु मुखवस्त्रिका व रजोहरण तो रखते ही हैं। (स-द) श्रुतकृत विशेषता तथा लिंग (वेश) कृत विशेषता-स्वयं बुद्ध दो तरह के होते हैं –(१) जिन को पूर्व जन्म का ज्ञान इस जन्म में हो जाता है व (२) जिनको पूर्व जन्म का ज्ञान इस जन्म में नहीं होता। पहले प्रकार के स्वयं बुद्ध लिंग धारण करके नियम पूर्वक संघ (गच्छ) में रहते हैं और दूसरी प्रकार के गुरु के पास जाकर वेश स्वीकार करते हैं जो उन्हें देवता लाकर देते हैं किन्तु यदि उनकी अकेले विचरने की क्षमता और इच्छा हो तो वे अकेले विचर सकते हैं। प्रत्येक बुद्ध को पूर्व जन्म का ज्ञान इस जन्म में अवश्यमेव होता है जो जघन्य ग्यारह अंग और उत्कृष्ट कुछ कम दस पूर्व का होता है। दीक्षा लेते समय देवता उन्हें लिंग (वेश) देते हैं अथवा वे लिंग रहित भी होते हैं। (७) बुद्ध बोधित सिद्ध–आचार्य आदि के उपदेश से बोध प्राप्त करके मोक्ष जाने वाले बुद्ध बोधित सिद्ध कहलाते हैं। (८) स्त्रिलिंग सिद्ध-स्त्री जीवन से सिद्ध होने वाली आत्माएं स्त्री लिंग सिद्ध कहलाती हैं। स्त्रीत्व तीन प्रकार का बतलाया गया है—(अ) वेद (ब) शरीरकृति और (स) वेश। यहां शरीरकृति रूप स्त्रीत्व लिया गया है क्योंकि वेद (स्त्री) के उदय में तो कोई आत्मा सिद्ध हो ही नहीं सकती है और वेश अप्रमाण है अतः यहां शरीर कृति रूप स्त्रीत्व की ही विवक्षा है। (६) पुरुष लिंगसिद्ध–पुरुष की ४१३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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