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________________ करता है। अतः इस एकाग्र अवलोकन के समय अहंभाव का लेश मात्र भी नहीं होना चाहिये। साधक विनम्रतापूर्वक ही अपने भीतर की दशा का सम्यक् अवलोकन करे। भीतर की गुत्थियों को सुलझाने के लिए संशोधित वृत्तियों को ही काम में लें। समता एवं एकावधानतामय जो विवेक जागृत होगा, वही साधक को अपनी गुत्थियाँ सुलझाने में सहायता करेगा तो उसे पुनः आत्म-समीक्षण की प्रक्रिया में सुदृढ़ता के साथ प्रतिष्ठित करेगा। समीक्षण ध्यान रूपी नेत्रों में जब प्रकाश भर उठेगा, तब मानस तंत्र में उपजी एक भी गुत्थी अनसुलझी नहीं रह सकेगी। आत्म-समीक्षण को सफल बनाने वाली दो भुजाएँ होती हैं—एक एकाग्रता की तो दूसरी समता की। इन दोनों भुजाओं का जब साधक भव्य रीति से संयुक्तिकरण कर लेता है तब दूषित प्रवृत्तियों के साथ संघर्ष करने में कोई दुर्बलता नहीं रहती है। एकाग्रता एवं समता के दिव्य आलोक में आन्तरिकता का यह विज्ञान बन जाता है कि साधक अपने समीक्षण ध्यान के बल पर अपनी अन्तर्वृत्तियों का अवलोकन करते हुए उन्हें सुव्यवस्थित बना ले तथा आत्म विकास की महायात्रा में सफल बनने की क्षमता अर्जित कर ले। दृढ़ संकल्प एवं पूर्ण श्रद्धा के साथ उसके पांव मजबूती से साधना पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं। उसका यह गमन जितना व्यवस्थित होगा, उतनी ही कुशलता से वह स्थूल परिधि में से निकल कर सूक्ष्म परिधि में प्रवेश कर सकेगा। इस सूक्ष्म परिधि में उसकी गति की जितनी विशिष्टता होगी, उसी परिमाण में वहाँ की जटिलताओं में कमी आयेगी। कारण, जितनी विचित्र प्रकार की झंझटें, अड़चनें और रुकावटें स्थूल परिधि में विचरण करते हुए आती हैं, उतनी सूक्ष्म परिधि में नहीं आती हैं। जो साधक स्थूल परिधि को पार करके सूक्ष्म परिधि में आगे बढ़ जाता है, मानिये कि वह मोक्ष के राजमार्ग पर पहुँच जाता है। मोक्ष के राजमार्ग की अनुभूतियाँ अपूर्व आनन्द से भरी हुई होती हैं। इस मार्ग पर आगे बढ़ते हुए साधक ऐसी विचारणाओं में विचरण करने लग जाता है जो पूरी तरह सुलझी हुई होती हैं। अन्तर्वृत्तियों के उस सरोवर में तब ऐसे ऐसे भाव-कमल विकसित होते हैं जिन्हे देखकर अन्तरात्मा अनुरंजित हो उठती है। ये दृश्यावलियाँ बड़ी रंगबिरंगी होती हैं। इस सघनता में यदि साधक यकायक स्तब्ध हो जाता है और अपने समीक्षण घ्यान को सुव्यवस्थित नहीं रख पाता है तो उस दिव्य प्रकाश की चमचमाहट में वह किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाता है। जिस प्रकार जंगली जानवर भयंकर जंगल की झाड़ियों, पहाड़ियों, नदी-नालों तथा कांटों भरे पथरीले रास्तों को अंधेरी रात में भी सामान्य प्रकार से पार कर लेते हैं किन्तु उनके सामने तेज रोशनी एकाएक फैल जाय तो वे चकरा जातें हैं और अपना रास्ता भूल जाते हैं। उसी प्रकार साधक यदि उस दिव्य प्रकाश में चक्कर खा जाय तो अपनी साधना से वह पतित हो सकता है। सूक्ष्म परिधि में समीक्षण ध्यान की भी उतनी ही सूक्ष्मता अपेक्षित रहती है। कई बार तो कई साधक उपर्युक्त स्थिति को ही सिद्धि मान लेते हैं और अपनी उस स्थिति का बाहर प्रदर्शन करने लग जाते हैं। वैसे साधक राजमार्ग पर पहुँच जाने के बावजूद बाह्य प्रदर्शन में संलग्न हो जाने के कारण उस सूक्ष्म परिधि से छिटक कर स्थूल परिधि में पतित हो जाते हैं। ऐसे साधक तब नाना भांति की समस्याओं में उलझ कर पुनः वहाँ से आगे प्रस्थान नहीं कर पाते हैं। उन समस्याओं को सुलझाने की उनमें क्षमता रहते हुए भी वे अपने अहंभाव से इस प्रकार आवृत्त १८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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