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________________ लाना। (११) अभिहृत–साधु के लिये एक से दूसरे स्थान पर लाया हुआ आहार | (१२) उद्दिभन्न—साधु को घी वगैरा देने के लिये सील बन्द कुप्पी का मुंह खोलकर देना। (१३) मालापद्दत-एड़ियां उठाकर या निसरणी लगाकर आहार देना। (१४) आच्छेध-अपने आश्रित से छीनकर साधु को देना। (१५) अनिसृष्ट-किसी वस्तु के एक से अधिक मालिक होने पर सबकी इच्छा के बिना देना। (१६) अध्यवपूर्वक साधुओं के आने का सुनकर आधण में अधिक ऊरा हुआ देना। उत्पादना के सोलह दोष—(१) धात्री-धाय को नौकरी लगवा कर आहार लेना (२) दूती-दूत का काम करके आहार लेना (३) निमित्त—ज्योतिष बता कर आहार लेना (४) आजीव–जाति, कुल प्रकट करके आहार लेना (५) वनीपक—प्रशंसा करके या दीनता दिखाकर आहार लेना (६) चिकित्सा-औषधि बताकर आहार लेना (७) क्रोध-गुस्सा करके या शाप, आदि का डर दिखाकर आहार लेना (८) मान-प्रभाव जमा कर आहार लेना (६) माया छलावा करके आहार लेना (१०) लोभ-जिह्वा के स्वाद लोभ में अमुक आहार के लिये भटकना (११) प्राक्पश्चात्संस्तव- पहले या पीछे दाता की तारीफ करके आहार लेना (१२) विद्या-विद्या (जप होम आदि से सिद्ध) का प्रयोग करके आहार लेना (१३) मंत्र-मंत्र प्रयोग से आहार लेना (१४) चूर्ण-अदृश्य करने वाले सुरमे आदि के प्रयोग से आहार लेना। (१५) योग-सिद्धियां बताकर आहार लेना (१६) मूलकर्म-सावध क्रियाएं (गर्भपात आदि) बताकर आहार आदि लेना। ग्रहणैषणा के दस दोष-(१) शंकित-आधाकर्म आदि दोषों की शंका हो जाने पर भी आहार लेना (२) म्रक्षित–सचित्त वस्तु से छू जाने पर भी आहार लेना (३) निक्षिप्त—सचित्त वस्तु के ऊपर रखी वस्तु लेना (४) पिहित-सचित्त वस्तु द्वारा ढकी हुई वस्तु लेना (५) साहरित—जिस बर्तन में सचित्त वस्तु रखी हो, उसमें से सचित्त वस्तु निकाल कर उसी बर्तन से दिया हुआ आहार लेना (६) शराब पिये हुए व्यक्ति से या गर्भिणी महिला से या इसी प्रकार के किसी व्यक्ति से जो दान देने का अधिकारी न हो, उससे दान लेना (७) उन्मिश्र-सचित-अचित्त मिला हुआ आहार लेना (८) अपरिणत—पूरे पाक के बाद वस्तु के निर्जीव होने से पहिले ही उसे ले लेना (६) लिप्त लेप करने वाली रसीली वस्तुओं को लेना (१०) छर्दित—जिसके छींटे नीचे पड़ रहे हो वैसा आहार लेना। मैं इन बयालीस दोषों को टालकर आहार आदि की गवैषणा करता हूं और निर्दोष आहार मिलने पर ही उसे ग्रहण करता हूं, अन्यथा आहार आदि से सम्बन्धित परीषहों को सहन करता हूं। मैं अपने साध्वाचरण को समाचारी पूर्वक श्रेष्ठ बनाये रखता हूं और उस समाचारी के इन दस नियमों का पालन करता हूं-(१) इच्छाकार-मैं अपने साथी साधु से किसी कार्य की प्रार्थना करते अथवा स्वयमेव उसके द्वारा मेरा कार्य करते समय इच्छाकार कहता हूं अर्थात् कोई भी कार्य बलपूर्वक नहीं किया कराया जाता। (२) मिथ्याकार–संयम का पालन करते हुए कोई विपरीत आचरण हो गया हो तो उस पाप के लिये मैं 'मिच्छामि दुक्कई' कहकर अपने पाप के निष्फल होने का पश्चाताप करता हूं। (३) तथाकार—मैं सूत्र आदि के विषय में गुरु को जब कुछ पूछता हूं और वे उत्तर देते हैं तो मैं 'जैसा आप कहते हैं, वही ठीक है' ऐसा कहता हूं। (४) आवश्यिकाआवश्यक कार्य के लिये जब मैं उपाश्रय से बाहर निकलता हूं तो 'आवस्सिया' कहता हूं कि मैं आवश्यक कार्य के लिये जाता हूं। (५) नैषेधिकी—बाहर से वापस उपाश्रय में लौटते हुए मैं 'निसीहिया' कहता हूं कि अब मुझे बाहर जाने का कोई काम नहीं है। (६) आपृच्छना किसी कार्य में प्रवृति करने से पहिले मैं गुरु से 'क्या मैं यह करूं' ऐसा पूछता हूं। (७) प्रतिपृच्छा—गुरु ने पहले ४०१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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