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________________ मैं निग्रंथ और निष्परिग्रही हूं। किसी भी वस्तु में चाहे वह छोटी बड़ी, जड़, चेतन, बाह्य आभ्यन्तर या किसी भी प्रकार की हो, मेरी कोई आसक्ति नहीं है और जब आसक्ति नहीं है तो उसमें बंध जाने या विवेक खोकर परिग्रही कहलाने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं जानता हूं कि वास्तविक परिग्रह धन सम्पत्ति स्वयं न होकर उसमें रही हुई व्यक्ति की मूर्छा रूप होता है। मूर्छा न होने पर चक्रवर्ती सम्राट् भी अपरिग्रही कहा जा सकता है और मूर्छा होने से एक भिखारी भी परिग्रही होता है। भिखारी ही क्यों, अपने वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों में मूर्छा भाव रखकर मुनि भी परिग्रही हो सकता है। मैं किसी भी वस्तु का संग्रह करने की इच्छा तक नहीं करता हूं क्योंकि ऐसी इच्छा करने वाला साधुवेश रखते हुए भी साधु नहीं होता। मैं वस्त्र, पात्र, कंबल और रजोहरण आदि जो भी वस्तुएं रखता हूं, वे एक मात्र संयम की रक्षा के लिये रखता हूं तथा अनासक्त भाव से उनका उपयोग करता हूं। मैं यत्नशील रहता हूं कि अपने शरीर पर भी ममत्व न रखूं – उसे मात्र धर्म साधन मानकर चलाऊं। मैं ममत्व बुद्धि का त्याग करते हुए स्वीकृत परिग्रह का त्याग करता हूं और मेरा विश्वास है कि जब मेरे ममत्व और परिग्रह नहीं होंगे तो मैं ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना के मार्ग पर ही अग्रगामी बनूंगा । मैं निःशल्य व्रती हूं क्योंकि सच्चे त्याग के लिये शल्यरहित होना नितान्त आवश्यक है। शल्य तीन हैं – (१) दंभ, पाखंड या मायाचार, (२) भोगों की लालसा तथा (३) असत्य का आग्रह एवं सत्य के प्रति अश्रद्धा । मैं इन तीनों शल्यों को मानसिक दोष मानता हूं और इन तीनों से मुक्त रहने को श्रेयस्कर, क्योंकि ये तीनों शल्य शरीर, मन और आत्मा को अस्वस्थ बनाते हैं । शल्य रखते हुए कोई भी कैसा भी व्रत ले ले किन्तु उस का वह समुचित रीति से पालन नहीं कर सकेगा। जिस प्रकार शरीर में कोई कांटा या तीखी चीज धंस जाय तो वेदना से तन, मन अशान्त हो जाता है, उससे भी ये तीनों शल्य आत्मा के लिये अत्यन्त वेदनाकारी होते हैं। इसलिये मैं शल्य रहित होकर अपने मुनिव्रतों का अनुपालन करता हूं । मेरा मुनि धर्म किसी जाति, कुल, सम्प्रदाय, वेश या क्रियाकांड विशेष को महत्त्व नहीं देता। मेरे लिये वीतराग प्ररूपित संयम, त्याग और तप ही महत्त्वपूर्ण हैं । धर्माराधना और शरीर निर्वाह के लिये जितने उपकरणों की मर्यादा है, उससे अधिक मैं नहीं रखता। मैं कोई धातु या उससे बनी वस्तु या रुपया पैसा मुद्रा भी अपने पास नहीं रखता हूं। आवश्यकता पड़ने पर सुई तक भी यदि गृहस्थ के पास से लाता हूं तो उसे उसी दिन सूर्यास्त के पहिले लौटा देता हूं। मैं सूर्यास्त के बाद न कुछ खाता हूं, न पीता हूं न वैसी कोई वस्तु अपने पास रखता हूं। सदा पैदल विहार करता हूं – पैरों में जूते नही पहिनता या सिर पर पगड़ी, टोपी, छाता नहीं लगाता । जलती हुई धूप . हो या कड़कड़ाती सर्दी — नंगे पैर और नंगे सिर ही रहता हूं । स्वावलम्बी और निष्परिग्रही होने के कारण नापित आदि से बाल नहीं बनवाता, बल्कि अपने ही हाथों से उन्हें उखाड़ कर लोच करता हूं। इसी प्रकार मैं गृहस्थ से भी कभी सेवा नहीं करवाता और बीमारी या अशक्ति में ही अत्यन्त संकोचपूर्वक अपने साथी मुनि की सहायता लेता हूं। मेरा आहार न मैं किसी से बनवाता हूं और न अपने निमित्त बने हुए आहार को ग्रहण ही करता हूं। जैसे गाय चरती है ऊपर ऊपर के घास को और उसे उखाड़ती नहीं है, उसी प्रकार मैं गृहस्थों के घर से थोड़ा थोड़ा आहार भिक्षा में लाकर गोचरी करता हूं जिससे उन्हें न कष्ट हो और न भोजन दुबारा बनाना पड़े। मैं विविध तपस्याएं करता हुआ संयम पूर्वक अपना निर्वाह करता हूं और आत्म-रमण की अवस्था में रहता हूं। मैं प्रति ३६६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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