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________________ - यह आत्मोद्बोधन मेरी भीतरी गहराई तक मुझे छू जाता है और मैं भावाभिभूत हो जाता हूं कि वीतराग देवों की आज्ञा को भली प्रकार से समझ कर मैं कुछ विशिष्ट आत्मिक प्रगति के चरण उठाऊं। आत्मा ही मेरी शरण है। सदाचार ही मोक्ष का सोपान है और यदि चारित्र से विशुद्ध बना हुआ ज्ञान अल्प भी है तब भी महान् फल प्रदायक है। शील गुण से रहित होना मनुष्य जन्म को निरर्थक करना है और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त रहना ही शील है। शीलाचार के बिना इन्द्रियों के विषय मेरी आत्मा के ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। जीव दया, दम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यक् ज्ञान, दर्शन, और तप—यह सब शील का परिवार है—आचार के अंग हैं। ___मैं आत्म स्वरूपी हूं—एक मात्र उपयोगमय और ज्ञानमय हूं। मैं तो शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप, सदा काल अमूर्त, एक शुद्ध शाश्वत तत्त्व हूं। परमाणु मात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है। मैं ही मेरा कर्ता हूं और मैं ही मेरा भोक्ता । अपने इस स्वरूप को मैं अपनी ही आत्म प्रज्ञा अर्थात् भेद विज्ञान रूप बुद्धि से जानता हूं। अब नमस्कार महामन्त्र के पांच पदों की दृष्टि से आत्मसमीक्षण प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि हमारी आत्मा को उन उन पदों से संयोजित कर चिन्तन करने पर उसकी गुणात्मकता की अनुभूति हो सके और आत्मा विकास पथ पर प्रयाण करने के सत्साहस को बढ़ा सके। मैं रत्नत्रयाराधक मुनि हूं! मैं अपने आत्मस्वरूप को पहिचानता हूं, सम्यक् दृष्टि और सुव्रती बनता हूं तथा रत्नत्रयाराधक मुनि बन जाता हूं। __ मैं छः काया के जीवों का रक्षक हूं, अतः मैं ऐसे किसी कार्य का उपदेश नहीं देता जिससे किसी भी प्रकार की जीव हिंसा हो। मैं अहिंसा को परम धर्म मानता हूं और महावीरता। जो व्यक्ति भयंकर शस्त्रास्त्र एकत्रित करके स्वरक्षा और परसंहार के लिये दीनहीन दुःखियों के प्राण हरता है, वह कदापि वीर नहीं हो सकता। यदि उसे वीर कहें तो अधिक झूठ बोलने वाले, चोरी करने वाले, व्यभिचारी और आडम्बरी भी वीर कहलाएं । वीर का अर्थ होता है उत्साहपूर्णता और यह उत्साह फूटना चाहिये अपने ही आत्मदोषों के निवारण में। अपने ही भीतर रहे हुए द्वेष, हिंसा, क्रूरता, क्रोध आदि दोषों से युद्ध करना सच्ची वीरता है। अतः मैं वीर हूं—अहिंसक वीर। मैं किसी भी जीव के प्राणों का व्यतिरोपण न स्वयं करता हूं, न दूसरे से करवाता हूं तथा न करने वाले का किसी भी रूप में अनमोदन करता है। इसका पालन मैं अपने मन, अपने वचन और अपनी काया से करता है। अतः मैं कच्चा पानी, कच्चे शाक या फल, कच्चा धान या ऐसी किसी भी वस्तु को जिसमें जीवाणुओं का अस्तित्व हो –उपयोग में तो लेना दूर, उनका स्पर्श तक नहीं करता हूं ताकि छोटे से छोटे जीवों के प्राण भी मेरे द्वारा कष्टित न हों। इतना ही नहीं, भिक्षा के समय यदि जीवाणुओं से युक्त कोई वस्तु भी मेरे लेने योग्य वस्तु से छू रही हो तो उस लेने योग्य वस्तु को भी मैं ग्रहण नहीं करता हूं। समस्त जीवों के प्रति दया, करुणा, अनुकम्पा एवं रक्षा के भावों से मेरा हृदय सदा सर्वदा यतना और सजगतापूर्वक सतत सावधान रहता है। मैं असत्य अथवा असत्कथन का भी सर्वथा त्यागी होता हूं। असत् कथन तीन प्रकार से हो सकता है -(१) जो वस्तु सत् (विद्यमान) हो उसका एकदम निषेध कर देना, (२) एकदम ३६७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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