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________________ भी समझ लूं । मोक्ष प्राप्ति ही इस आत्मा का चरम लक्ष्य है—इस दृष्टि से यदि मैं मोक्ष की दूरी का अनुमान लगा लूं तो अपनी गति की त्वरितता पर ध्यान दे सकूँगा। संसार से मोक्ष की कितनी दूरी है—यह ज्ञान कोई संख्यात्मक नहीं है कि इतने कोस या मील है सो अमुक गति से चलेंगे तथा इतने समय में उसे पार लेंगे। वस्तुतः यह दूरी गुणात्मक है-पथिक या साधक की स्वयं की गुणपूर्ण साधना पर आधारित है। यह गुणों की साधना जब भी परमोत्कृष्ट बन पड़ेगी, तभी मोक्ष प्राप्त हो जायगा। यों इस आत्मा को संसार के जन्म मरण के चक्र में भ्रमित होते हुए अनन्त समय हो गया है और साधना की परिपक्वता न बन पड़े तो अनन्त समय और निकल सकता है। और यों इस साधना की परमोत्कृष्टता सध जाय तो मोक्ष की दूरी कुछ ही पलों में पूरी हो सकती है। इसमें भी मैं एक तथ्य पर और सोचता हूं और वह तथ्य यह है कि क्या इस संसार की सभी आत्माएं कभी न कभी मोक्ष में चली जायगी? यदि कभी न कभी सभी आत्माएं मोक्षगामी बन जायगी तो क्या संसार का अन्त आ जायगा? आप्त वचनों के अनुसार ऐसा कभी नहीं होगा। आत्माओं के दो वर्ग माने गये हैं एक तो भवि आत्माएँ और दूसरी अभवि आत्माएँ। भवि आत्माओं में तो कभी न कभी मोक्ष पद प्राप्त कर लेने का सामर्थ्य माना गया है परन्तु अभवि आत्माएं कदापि मोक्ष में नहीं जायगी। वे इस दृष्टि से सामर्थ्य हीन आत्माएं हैं। जैसे चने भिगाये जाते हैं और काफी समय तक भीगते रहने के बाद भी उनमें जो घोरडू (बिना भीगे चने)रह जाते हैं, वे कितने ही पानी में कितनी ही देर रखे जाय, तब भी भीगते नहीं हैं, उसी प्रकार अभवि आत्माएं धर्म-रस में कभी भी भीगती नहीं है और धर्म रस में भीगती नहीं तो मोक्ष भी प्राप्त कर सकती नहीं हैं। इस प्रकार भवि आत्माओं का वर्ग ही मोक्ष प्राप्ति की साधना को सफल बना सकता है और इस साधना की सफलता उनकी अपनी गुण-विकास शक्ति पर निर्भर करती है। पर भव्यात्माएं भी संसार में अनन्त होने से अनन्त भव्यात्माओं के मोक्ष जाने पर भी, संसार कभी भी भव्यात्माओं से खाली नहीं होगा क्योंकि अनन्त भी अनन्त प्रकार का होता है, और अनन्त का कभी अन्त नही होता। ___ मैं सोचता हूं कि संसार से मोक्ष की दूरी इस रूप में भवि-आत्माएं ही पार करती हैं, इसीलिये इन्हें भव्य आत्माएं कहा गया है। किन्त भव्य और अभव्य आत्माएं दोनों गणों के स्थानों या सोपानों पर चढ़ती-उतरती हैं और अपनी भाव-सरणियों की उच्चता एवं निम्नता के अनुसार ऊपर नीचे होती रहती हैं। कभी कभी तो बहुत ऊंचाई तक ऊपर चढ़कर भी कई आत्माएं संसार-मोह के धक्कों में विचलित हो जाती हैं और बहुत नीचे तक गिर जाती हैं। विरली भव्य आत्माएं ही अपनी सुस्थिर गति से ऊपर से ऊपर तक चढ़ती जाती हैं और अन्ततोगत्वा सभी गुण के स्थानों को पार करती हुई मोक्ष के परम पद को प्राप्त कर लेती हैं। यह सब सोचकर जब मैं ध्यानमग्न होता हूं तो मुझे अनुभूति होती है कि मैं संसार से मोक्ष की इस दूरी को अवश्य ही पार कर सकूँगा और वह भी यथासाध्य शीघ्रातिशीघ्र । मेरी यह अनुभूति ही मुझे अपने आत्म गुणों के विकास की सबल प्रेरणा देती है। इसी अनुभूति के प्रभाव से मैं घनान्धकार में खड़ा हुआ भी प्रकाश की किरणें देखता हूं, प्रकाश पाने के लिये मचलता हूं और प्रकाश को आत्मसात करने लगता हूं। प्रकाश की इस दौड़ में मेरे भीतर और मेरे बाहर का समूचा वातावरण प्रकाशमय होने लगता है। ज्यों-ज्यों प्रकाश का घनत्व और उसकी तेजस्विता अभिवृद्ध ३७०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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