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________________ शक्ति केन्द्र के प्रति सावधानी इस साधना क्रम में सर्वाधिक जागृति की आवश्यकता तब प्रतीत होती है जब हमारे दिल के कोनों में जम कर बैठी हुई दूषित वृत्तियाँ भारी तूफान मचाती हैं। साधना के समय जब सोई हुई शक्तियाँ जागती हैं, तब चारों तरफ पवित्रता का एक अनूठा वायुमंडल तैयार होता है। उस वायुमंडल से उन दूषित वृत्तियों का जमा हुआ आसन डोलने लगता है। अपने जमे हुए आसन को कौन आसानी से छोडना चाहता है ? परिणामस्वरूप जागती हुई आत्म-शक्तियों तथा जमी हुई दूषित वृत्तियों के बीच में एक प्रकार का संघर्ष शुरू हो जाता है। यदि साधना का संकल्प दृढ़तर हुआ तो असत्वृत्तियों को अपना आसन छोड़ देना पड़ेगा और साधक को विजय-श्री मिल जायेगी। यदि ऐसी परिपक्क मनोदशा नहीं बन पाई तो अनादिकालीन दूषित विचार उस साधक की साधना को छिन्नभिन्न कर डालेंगे। उस दशा में हताशा और निराशा में डूबकर साधक लक्ष्य-भ्रष्ट हो जायेगा। अतः इस प्रकार की सावधानी अत्यन्त आवश्यक है कि जब विकारपूर्ण दूषित वृत्तियाँ अपना असर दिखाने लगें तभी तुरन्त आत्मशक्ति के संबल को जागृत बना लेना चाहिये ताकि अपनी उच्छृखलता के प्रारंभ में ही उन वृत्तियों को परास्त किया जा सके। इतना ही नहीं, उन वृत्तियों के उभरने के कारणों को ही अवरुद्ध बना देना चाहिए। इन वृत्तियों के पहले और हल्के आक्रमण के साथ इस तरह का चिन्तन शुरू कर दिया जाना चाहिये कि ये वृत्तियाँ मेरी स्वाभाविक नहीं, 'पर' से प्रभावित होने से पराई है—आई हुई हैं, जिहोंने मेरी आत्मशक्ति पर अपना डेरा डाल दिया है और मेरी चेतना को व्यामोहित करके उसकी प्रभा हर रखी है। इन दूषित वृत्तियों का आगमन और उनका मेरे आत्मस्वरूप पर आक्रमण तथा निवास होने का एकमात्र कारण यह है कि मैं असावधान रह गया और ये वृत्तियाँ अंकुरित और फलित होती गई ऐसा चिन्तन करते हुए एक साधक को उभरती हुई अपनी दूषित वृत्तियों का तत्काल उपशम चाहिये ताकि उनके कमजोर पड़ जाने पर उनका सरलतापूर्वक क्षय किया जा सके। वह निश्चय करे कि अब ये वत्तियाँ उसकी आत्मशक्तियों को दबाकर नहीं रख सकेंगी। अब यह इन्द्रिय जन्य क्षणिक आनन्द सत्-चित् रूप शाश्वत आनन्द को आवृत्त नहीं कर सकेगा। क्योंकि यह दोष उन वृत्तियों का नहीं मेरा स्वयं का है। मैं असावधान नहीं रहता तो भला ये वृत्तियाँ कितनी ही दूषित क्यों न होती, मेरा क्या बिगाड़ सकती थी? असावधान मालिक के घर में कोई चोर घुस जाय और सारी व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करके वहीं बस जाय तो इसमें चोर को दोष देने से कोई लाभ नहीं होगा। दोष सारा घर के मालिक का है जो असावधान रहा और घर के दरवाजों में घुसने से चोरों को पहले ही रोक नहीं सका। इसी प्रकार की असावधानी के कारण दूषित वृत्तियाँ कभी चोर की तरह तो कभी डाकू की तरह आत्मस्वरूप के पावन मन्दिर में घुस आती हैं और अपनी विद्रूपता फैला देती हैं। साधक के जागृति के क्षणों में इसी कारण ये विद्रूप वृत्तियाँ उसके जागरण को आच्छादित बनाती रहती हैं। इसलिए साधक को मूल पर ही प्रहार करना होगा और इन वृत्तियों की सक्रियता को ही मन्द बनाते हुए उन्हें पाप-पथ से हटानी होगी। साधक अपनी इन वृत्तियों का समीक्षण करते हुए सोचे कि यह मेरी विराट् भूल थी जो मैने इन क्षुद्र वृत्तियों में आनन्द की खोज की और मैं यह खोज करता ही रहा। तभी तो ये वृत्तियाँ मेरे अन्तःकरण में जम ही गई। किन्तु जब से मेरी दृष्टि आत्म-शक्ति की तरफ केन्द्रित बनी है तब से १४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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