SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णन आगे इसी अध्याय में है) पर चढ़ती हुई चार घाती कर्मों को नष्ट कर लेती हैं, तब उसके स्वरूप पर पड़े ज्ञान, दर्शन, मोह और अन्तराय के आवरण हट जाते हैं तथा उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र एवं अनन्त शक्ति के मूल गुण प्रकट हो जाते हैं। तेरहवें व चौदहवें गुणस्थानों में गति पूरी करके आत्मा शेष चार कर्मों का भी क्षय कर लेती है। तब उसमें सिद्धों के चार गुण प्रकट होते हैं-अव्याबाध सुख, अनन्त स्थिति, अरूपीत्व तथा अगुरुलघुत्व । यों मुक्तात्मा के आठ गुण हो जाते हैं। __ ऐसे मोक्ष रूपी गंतव्य पर कौन भव्य आत्मा जल्दी से जल्दी नहीं पहुंच जाना चाहेगी ? किन्तु यह प्राप्ति पुरुषार्थ के बिना संभव नहीं है तथा आत्मा को यह पुरुषार्थ करना पड़ेगा रत्ल-त्रय की साधना में। जानो, मानो और करो का पुरुषार्थी क्रम बिठाना होगा। रल-त्रय की साधना मैंने समझ लिया है कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की युति ही रल त्रय कहलाती है तथा रत्ल त्रय की साधना ही मोक्ष प्राप्ति की साधना होती है। यह विचारणीय तथ्य है कि यह युति सम्यक् होनी चाहिये वरना बिना सम्यक्त्व के तीनों रत्न नहीं रहते। ज्ञान जीव मात्र में पाया जाता है तथा ऐसा कोई समय नहीं आता, जब जीव ज्ञान रहित हो जाय, क्योंकि ज्ञान का सर्वथा अभाव हो तो जीव जीव नहीं रहेगा, जड़ हो जायगा और जीव कभी भी अजीव (जड़) होता नहीं है। ज्ञान तो होता ही है लेकिन वह मिथ्या ज्ञान भी हो सकता है और सम्यक् ज्ञान भी। मिथ्या ज्ञान को अज्ञान भी कहा जाता है। अतः मिथ्या एवं सम्यक् ज्ञान के अन्तर को समझना आवश्यक है। इस अन्तर को एक शब्द में यों कह सकते हैं कि जब ज्ञान सम्यक् दर्शन से युक्त होता है तब वह सम्यक् ज्ञान हो जाता है। इस दृष्टि से मैं समझता हूं कि आस्था सही होगी तो ज्ञान भी सही होगा —दर्शन की इस कारण सही होने की अपेक्षा रहती है क्योंकि दर्शन भी मिथ्या और सम्यक् दोनों प्रकार का हो सकता है। मिथ्या दर्शन रहेगा तब ज्ञान भी मिथ्या ही रहेगा। इसलिये सम्यक्त्व की प्रथम अनिवार्यता मानी गई है। मोक्ष का अर्थ होता है आत्म शक्तियों का सम्पूर्ण विकास। इस दृष्टि से इसका यह अर्थ भी हुआ कि आत्म शक्ति के विकास में बाधा डालने वाले तत्त्वों का विनाश । इस अर्थ के अनुसार सम्यक् ज्ञान वह होगा जो आत्म शक्तियों का विकास साधे और मिथ्या ज्ञान वह होगा जो इस विकास में बाधाएं खड़ी करे। यह कसौटी है जिस पर ज्ञान के खरेपन या खोटेपन की हर समय परीक्षा की जा सकती है। सम्यक्त्वधारी आत्मा अपनी प्रत्येक वृत्ति एवं प्रवृति को इस कसौटी पर कसकर उसकी जांच कर सकती है। जिससे भ्रम या संशय समाप्त किया जा सकता है। वैसे भी सम्यक्त्वधारी आत्मा सदा सत्य की शोध में रत रहती है कि वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ले सके। मेरी दृढ़ मान्यता है कि जब ज्ञान और दर्शन दोनों में सम्यक्त्व का समावेश हो जायगा तब चारित्र भी निश्चय रूप से सम्यक् बन जायगा। सम्यक्त्वी आत्मा अपने ज्ञान का उपयोग सांसारिक वासनाओं के पोषण में नहीं करती है, अपितु उसे अपने आध्यात्मिक विकास में नियोजित रखती है। किन्तु सम्यक्त्व रहित आत्मा का व्यवहार इसके विपरीत होता है। कई बार उसका ज्ञान सही भी होता है किन्तु आस्था सही नहीं होने से वह अपने मत के प्रति दुराग्रही होती है तथा दूसरों की सही ३६२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy