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________________ व सम्पत्ति रूप बाह्य संयोग तथा राग द्वेष कषाय रूप आभ्यान्तर संयोग को भी छोड़ देता हूं। जब मैं उक्त बाह्य एवं आभ्यन्तर संयोग को छोड़ देता हूं तो मुंडित होकर अनगार वृत्ति (मुनिधर्म) को अंगीकार कर लेता हूं। जब मुंडित होकर अनगार वृत्ति को अंगीकार करता हूं तो मैं सर्व प्राणातिपात आदि विरति रूप उत्कृष्ट संवर–चारित्र धर्म का यथावत् पालन करता हूं और चारित्र धर्म के इस पालन के साथ मैं मिथ्यात्व रूप कलुष परिणाम से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म रज को झाड़ देता हूं। कर्म क्षय के पश्चात् अशेष वस्तुओं को विषय करने वाले केवल ज्ञान और केवल दर्शन की प्राप्ति होती है। यह प्राप्ति आत्मा को जिन और केवली बनाकर लोक और अलोक का सम्पूर्ण ज्ञान करा देती है। केवल ज्ञानी अपनी स्थिति पूरी होने पर मन, वचन, काया रूप योगों का निरोध करता है तथा शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। तदनन्तर अशेष कर्मों का सर्वथा क्षय करके वह कर्म रहित होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। तब वह सिद्ध गति में रहने वाला शाश्वत सिद्ध हो जाता है। मोक्ष मार्ग पर प्रस्थान करने से लेकर गंतव्य तक पहुंचने का इस प्रकार मैं संक्षिप्त विवरण जानता हूं और इस पर मनन करता हूं। इसी का सार रूप संक्षिप्ततम विवरण भी मुझे वीतराग-वाणी में मिलता है जो इस प्रकार है—(१) सत्संग से धर्मश्रवण (२) धर्म श्रवण से तत्त्व ज्ञान (३) तत्त्वज्ञान से विज्ञान विशिष्ट तत्त्व बोध (४) विज्ञान से प्रत्याख्यान सांसारिक पदार्थों से विरक्ति तथा व्रत ग्रहण (५) प्रत्याख्यान से संयम (६) संयम से अनाश्रव-नवीन कर्मागमन का अभाव (७) अनाश्रय से तप (८) तप से पूर्व बद्ध कर्मों का नाश (E) पूर्वबद्ध कर्मनाश से निष्कर्मता-सर्वथा कर्मरहित स्थिति और (१०) निष्कर्मता से मोक्ष-सिद्धमुक्त अवस्था। ____ मैं इस रूप में मोक्ष प्राप्ति का मार्ग जानता हूं ज्ञान और क्रिया का – इसमें श्रद्धा को स्थान देने से रन त्रय की रचना होती है याने कि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चारित्र-ये तीन मोक्ष के मार्ग हैं। तप को चारित्र में समाहित कर लिया जाता है। रत्नत्रय का सरल अर्थ मैं इस रूप में करता हूं कि मैं सही जानूं और जो सही जानूं उसे मानूं- उस पर अपनी आस्था बनाऊं क्योंकि केवल जानना ही कार्य करने के लिए पर्याप्त नहीं होता है -उस जानने को मन से मानना भी जरूरी है। इस प्रकार जो मैं जानूं और मानूं, वैसा ही करूं। जब ज्ञान, आस्था और कर्म (कार्य) का संगम होता है तथा इनकी एकरूपता सधती है तब कोई भी साध्य कठिन नहीं रहता। मोक्ष का साध्य भी इनकी उत्कृष्ट साधना से सिद्ध होता ही है। यों मोक्ष प्राप्ति में पांच कारणों का संयोग होना भी बताया गया है -(१) कालसमयावधि की परिपक्वता, (२) स्वभाव अपने भाव में स्थिति की अवस्था (३) नियति-भाग्य (४) पूर्वकृत कर्मक्षय—पहले के संचित कर्मों का नाश तथा (५) पुरुषकार—पुरुषार्थ । इनमें से किसी एक, दो या पांच से कम कारणों के मिल जाने पर भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। पांचों कारणों का संयोग तद् हेतु आवश्यक है। मैं जानता हूं कि अनादि काल से जीव निगोद आदि गतियों में परिभ्रमण कर रहा है। कई जीव ऐसे हैं जिन्होंने स्थावर अवस्था को छोड़कर त्रस अवस्था को भी प्राप्त नहीं की है। अतः त्रसत्व आदि मोक्ष के पन्द्रह अंग बताये गये हैं। जिनकी प्राप्ति भी बहुत कठिन होती है (१) जंगमत्व (त्रसत्व)–निगोद तथा पृथ्वीकाय आदि को छोड़कर जंगम अवस्था (द्वीन्द्रिय आदि) को प्राप्त करना। ३६०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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