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________________ चयन करता हूं। ज्ञान के बिना ही क्रिया को पकड़ लूंगा तो मैं उसके सही स्वरूप को नहीं जान पाऊंगा और उस क्रिया की शक्ति को भी नहीं पहिचान पाऊंगा कि वह मुझे मेरी आत्म-विकास की महायात्रा में सफलता दिला सकेगी अथवा नहीं। इसके विपरीत केवल ज्ञान को ही पकड़ लूंगा तो प्रकाश अवश्य फैल जायगा किन्तु क्रिया के अभाव में गति नहीं पकड़ सकूँगा। प्रकाश में ही सहीलेकिन अपने प्रस्थान के स्थान पर ही ठहरा रहूंगा तो अपने गंतव्य तक पहुंचूंगा कैसे? समत्व योग तक पहुंचूं—उसके लिये मुझे प्रकाश भी चाहिये और गति भी। मुझे न अंधकारपूर्ण गति चाहिये और न प्रकाशपूर्ण स्थिति । मेरा ज्ञान और मेरी समता ही परस्पर जुड़ कर मेरी आत्मा को ऊर्ध्वगामी प्रगति प्रदान करेंगे। क्योंकि ज्ञान और क्रिया दोनों की एकरूप क्रियाशीलता से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। ज्ञान और क्रिया के सहयोगी स्वरूप का एक रूपक है। एक बीहड़ जंगल में एक लंगड़ा व्यक्ति पड़ा हुआ था, वह पास के नगर में पहुंच कर सुख से जीवन बिताना चाहता था। उसे नगर तक पहुंचने का सही मार्ग भी मालूम था, लेकिन वह एक कदम भी चल नहीं सकता था, इसलिये नगर में पहुंचे तो पहुंचे कैसे ? उसकी मार्ग की सही जानकारी और सुख पाने की अभिलाषा भी उसके कुछ काम नहीं आ रही थी। वह असहाय बना चारों ओर नजर घुमा रहा था कि कहीं उसका कोई सहायक मिल जाय। अचानक उसे कुछ दूरी पर एक दूसरा व्यक्ति दिखाई दिया। वह कभी एक पड़े से टकरा रहा था तो कभी किसी झाड़ी में गिर रहा था। कभी वह पत्थर से जाता तो कभी उसका सिर किसी नीची डाल से टकरा जाता। कभी वह गिरते-गिरते बच जाता तो कभी गिर कर अपने घुटने तोड़ ही डालता। वह लहूलुहान था। उसकी वह दुर्दशा देखकर लंगड़ा व्यक्ति चौंक उठा। उसके दिमाग में एक नया ही विचार कौंधा। वह लंगड़ा व्यक्ति समझ गया कि सामने से आने वाला व्यक्ति जरूर ही अंधा है। उसने देखा कि इतनी ठोकरें खाते रहने पर भी उसके पांवों में अच्छी ताकत है, क्योंकि तब भी वह काफी स्थिर गति से चल रहा था। उसने विचार किया कि अगर वे दोनों मिल जाय तो उसकी अभिलाषा पूरी हो सकती है। उसने अंधे व्यक्ति को जोर से पुकारा कि वह उसके पास चला आवे। फिर पुकारता रहा ताकि आवाज के सहारे वह उस तक पहुंच सके। धीरे-धीरे वह अंधा व्यक्ति भी उसके पास पहुंच गया। वह बहुत घबरा रहा था। उसने पूछा-तुम कौन हो? तुमने मुझे यहां क्यों बुलाया है ? लंगड़ा व्यक्ति उसके हाव भाव समझ कर बोला—पहले मैं पूर्वी कि तुम जंगल में क्या कर रहे थे ? अपनी खोज खबर लेने की हार्दिकता से अंधे व्यक्ति का दिल भर आया, रूंधे हुए कंठ से वह बोला-भाई, तुम देख रहे होवोगे कि मैं अंधा हूं। अपनी गलत हठ के कारण मैं घर से रवाना हो गया और इस जंगल में भटक गया। अब तुम्हीं मुझे पार लगादो और पास के नगर तक पहुंचा दो। एक ठंडी आह भर कर लंगड़े व्यक्ति ने अपनी सहानुभूति का हाथ अंधे व्यक्ति की पीठ पर फिराया और कहा—भाई, तुम देख नहीं पा रहे हो, लेकिन मैं भी तुम्हारी ही तरह अशक्त हूं। मैं भी पास के नगर तक जाना चाहता हूं किन्तु चल नहीं सकता हूं। मैं लंगड़ा हूं, इसीलिये यहाँ पड़ा हुआ हूं। अंधे व्यक्ति की व्याकुलता भी फूट पड़ी -भाई, हम दोनों दुखी हैं, फिर भी क्या हुआ? दोनों मिल जायं तो कोई न कोई राह निकल ही आयगी। लंगड़े व्यक्ति ने कहा-राह तो मैंने सोच भी ली है भाई, अगर तुम मान जाओ तो बेड़ा पार हो सकता है। ३५८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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