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________________ जैसे कि रोग ग्रस्त व्यक्ति को अपथ्य अन्न की लालसा होती है, वैसे ही कर्मग्रस्त आत्मा प्राप्त हुए राग को अपने से चिपकाये रखना चाहती है किन्तु अपथ्य अन्न की तरह प्राप्त राग भी अतीव हानि प्रद होता है। इसी प्रकार प्राप्त हुआ द्वेष भी आत्मा को उसी प्रकार तपा देता है जैसे कोटर में रही हुई आग वृक्ष को जल्दी ही जला डालती है। राग और द्वेष इहलोक और परलोक दोनों को बिगाड़ते हैं। यही अवस्था अनियंत्रित क्रोध, मान, माया तथा लोभ कषायों की होती है जो बढ़ते हुए संसार रूपी वृक्ष को सींचते रहते हैं। कषायी आत्मा प्रशय आदि गुणों से शून्य तथा मिथ्यात्व से मूढ़ होती है। कषायों से भी अज्ञान अधिक दःखदायी होता है क्योंकि अज्ञानी आत्मा अपना हिताहित भी पहिचानती है। हिंसा आदि आश्रव से अर्जित पापकर्मों के कारण आत्मा दीर्घकाल तक नीच गतियों में भटकती हुई अनेक अपायों (दुःखों) की भाजन होती है। इन दोषों से होने वाले, कुफल का चिन्तन करने वाली आत्मा इन दोषों से अपनी रक्षा करने में सावधान हो जाती है, जिससे वह सफलतापूर्वक आत्म-कल्याण की साधना कर सकती है। (३) विपाक विचय-आत्मा के मूल शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करना कि वह अनन्त ज्ञान, दर्शन एवं सुख रूप है किन्तु कर्मावृत्त होने के कारण उसके मूल गुण दवे हुए हैं और उसी से उसका संसार परिभ्रमण चल रहा है। सम्पत्ति-विपत्ति या संयोग-वियोग आदि से होने वाले सुख-दुःख आत्मा के ही पूर्वार्जित शुभाशुभ कर्मों के फल होते है क्योंकि आत्मा ही अपने सुख-दुःख का भोक्ता और कर्ता होती है। आत्मा की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में कर्मों के ही भिन्न-भिन्न फल होते हैं। इस प्रकार कषाय एवं योग जनित शुभाशुभ कर्म प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध, प्रदेश बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता इत्यादि कर्म विषयक चिन्तन में मन को एकाग्र करना विपाक विचय धर्मध्यान है। (द) संस्थान-विचय—इस अनादि अनन्त संसार सागर का चिन्तन करना कि धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य एवं उनकी पर्याय, जीव-अजीव के आकार, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, लोक का स्वरूप, जीव की गति आगति एवं जीवन मरण आदि संसार संसरण के रूपक हैं तथा इस संसार सागर में आत्मा और उसके कर्म से उत्पन्न जन्म जरा रूप जीवन मरण अथाह जल रूप है, क्रोध आदि कषाय जल-तल (पाताल) है, विविध दुःख मगरमच्छ आदि हैं, अज्ञान रूपी वायु उठती रहती है तथा संयोग-वियोग रूपी लहरें रात दिन चलती रहती हैं। इसके साथ ही यह भी चिन्तन करना कि इस संसार सागर को पार कराने में समर्थ चारित्र रूपी नौका होती है, जिसको सम्यक् ज्ञान रूपी नाविक चलाता है और जो सम्यक् दर्शन रूपी बंधनों से सुदृढ़ होती है। यह नौका संवर से छेदरहित, तप रूपी पवन से वेगवती, वैराग्य मार्ग पर चलने वाली किन्तु अपध्यान से न डगमगाने वाली बहुमूल्य शील रत्न से परिपूर्ण होती है। जिसे मुनि रूपी व्यापारी निर्बाध रूप से खेकर निर्वाण रूपी नगर को पहुँच जाते हैं। मोक्ष के अक्षय, अव्याबाध, स्वाभाविक व निरूपम सुखों की अभिलाषा रखते हुए वीतराग देवों द्वारा उपदेशित सिद्धान्तों के गहन अर्थ चिन्तन में मन को एकाग्र करना संस्थान विचय धर्म ध्यान धर्म ध्यान के भी चार लक्षण बताये गये हैं: (१) आज्ञा रुचि-सूत्र में प्रतिपादित अर्थों पर रुचि धारण करना (२) निसर्ग रुचि स्वभाव से ही बिना किसी उपदेश के वीतराग भाषित तत्त्वों पर श्रद्धा करना, (३) सूत्र रुचि-सूत्र द्वारा वीतराग प्ररूपित द्रव्यादि पदार्थों पर श्रद्धा करना तथा (४) अवगाढ़ (उपदेश) रुचि–वीतराग देवों के उपदेशों जो सुगुरु द्वारा कहे जावें के भावों पर श्रद्धा करना। समुच्चय में तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यक्त्व ही धर्म ध्यान का प्रमुख लक्षण होता है। धर्मध्यानी वीतराग देव एवं सुगुरु के गुणों का कथन करता है, उनकी प्रशंसा और स्तुति करता है, गुरु आदि का विनय करता है, दान देता है, तथा श्रुत, शील एवं संयम में अनुराग रखता है। धर्म ३४८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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