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________________ चिन्ता करना वियोग हो जाने पर सुख का अनुभव करना तथा भविष्य में भी उनका संयोग न हो सके ऐसे प्रयलों में व्याकुल बने रहना- यह आर्तध्यान का पहला प्रकार है। इस प्रकार का मूल कारण अमनोज्ञ के प्रति द्वेष होता है। (ब) रोग चिन्ता-शूल, सिर दर्द आदि रोगों का आक्रमण होने पर उनकी चिकित्सा में व्याकुल होकर रोगों के मिट जाने की चिन्ता करना और भविष्य में रोग संयोग न हो इस के लिए आतंकित रहना रोग चिन्ता आर्तध्यान है। (स) मनोज्ञ संयोग चिन्ता-पांचों इन्द्रियों के विषय एवं उनके साधन रूप स्वयं, माता, पिता, भाई, स्वजन, स्त्री, पुत्र, धन तथा साता वेदना के संयोग में, उनका वियोग न हो ऐसी चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उनके संयोग की इच्छा रखना—यह आर्तध्यान का तीसरा प्रकार है। इस प्रकार का मुख्य कारण राग माना गया है। (द) निदान (नियाणा)—सम्राट, इन्द्र, चक्रवर्ती वासुदेव आदि की ऋद्धि या रूप राशि देखकर अथवा सुनकर उनमें आसक्ति लाना तथा यह सोचना कि मैंने जो तप-संयम आदि के धर्मकृत्य किये हैं, उनके फलस्वरूप मुझे भी ऐसी ऋद्धि और रूपराशि प्राप्ति हो –यह निदान आर्तध्यान है। इसे अधम चिन्ता कही गई है। इसका मूल कारण अज्ञान होता है क्योंकि अज्ञानी ही दूसरों के प्राप्त सुखों में आसक्ति भाव लाते हैं। ज्ञानी पुरुषों के चित्त में तो सदा ही मोक्ष की लगन लगी रहती है। यह चार प्रकार का आर्तध्यान राग, द्वेष से यक्त होने के कारण संसार में अधिक भव भ्रमण कराने वाला है आर्तध्यान के चार लक्षण बताये गये हैं—(अ) आक्रन्दन-ऊँचे स्वर से रोना और चिल्लाना, (ब) शोचन-आंखों में आंसू लाकर दीन-भाव धारण करना, (स) परिवेदना-बार-बार भाषण करना तथा विलाप करना एवं (द) तेपनता -झार झार आंसू गिराना। इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग और वेदना के निमित्त से ये चारों चिह्न एक आर्तध्यानी में दिखाई देते हैं। (२) रौद्र ध्यान–हिंसा की ओर उन्मुख बनी आत्मा द्वारा प्राणियों को कष्टित कर रूलाने और संत्रस्त बनाने वाले व्यापार का चिन्तन करना रौद्र ध्यान होता है। हिंसा की ओर उन्मुख होने वाली आत्मा हिंसा के साथ झूठ, चोरी, धन रक्षा आदि से भी अपने मन को जोड़ती है और वैसी दशा में अतिक्रूर परिणामों से ग्रस्त बनकर वह रौद्र ध्यानी होती है। उस प्रकार के ध्यान में छेदना, भेदना, काटना, मारना, वध करना, प्रहार करना, दमन करना, शोषण करना, अधीन बनाना आदि के संकल्प-विकल्प ही चलते रहते हैं और ऐसा रौद्र ध्यानी इन सब कुकृत्यों के प्रति राग भाव रखता है और उसके हृदय में अनुकम्पा-दया का भाव नहीं रहता है। रौद्रध्यान के चार प्रकार कहे गये है : (अ) हिंसानुबन्धी प्राणियों को चाबुक, बेंत आदि से मारना, कील आदि से नाक वगैरा बींधना, किसी को रस्सी, जंजीर आदि से बांधना, अग्नि में जलाना, अग्नि-दाग (डाम) लगाना, तलवार आदि धारदार शस्त्र से प्राण-वध करना अथवा इस प्रकार के व्यवहार न करते हुए भी क्रोध के वश हो कर निर्दयतापूर्वक निरन्तर इन हिंसाकारी व्यापारों को करने का चिन्तन करना हिंसानुबंधी रौद्र ध्यान है। (ब) मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान के इस प्रकार में दूसरों को ठगने की मायावी प्रवृत्तियाँ चलाई जाती हैं तथा छिप कर पापाचरण करते हुए अनिष्ट सूचक शब्द, असभ्य वचन, असत् अर्थ का प्रकाशन, सत् अर्थ का अपलाप एवं एक के स्थान पर दूसरे पदार्थ आदि का कथन रूप असत्य वचन तथा प्राणियों के उपघात करने वाले कहे जाते हैं अथवा कहने की निरन्तर चिन्ता की जाती है। (स) चौर्यानुबन्धी -तीव्र क्रोध एवं लोभ से व्यग्रचित्त वाले पुरुष की प्राणियों के उपघातक अनार्य काम जैसे, पर द्रव्य हरण आदि में निरन्तर चित्तवृत्ति का उलझी हुई रहना चौर्यानुबन्धी रौद्र ध्यान है। (द) संरक्षणानुबन्धी—पांचों इन्द्रियों के शब्द, रूप आदि पांच विषयों के साधन रूप धन की रक्षा करने ३४६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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