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________________ (४) परिकुंचना प्रायश्चित - द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा अपराध को छिपाना या उसे दूसरा रूप देना परिकुंचना है। इसका प्रायश्चित परिकुंचना प्रायश्चित कहलाता है । किसी पर झूठा कलंक लगाने को अतीव ही जधन्य माना गया है, बल्कि उसके लिये उतने ही प्रायश्चित का निर्देश दिया गया है कि जितना स्वयं उस कृत्य को करने से लिया जाना चाहिये । निम्न छः बातों में झूठा कलंक लगाने वाले को उतना ही प्रायश्चित आता है, जितना उस दोष के स्वयं वास्तविक सेवन करने पर आता है - ( १ ) हिंसा न करने पर भी किसी व्यक्ति पर हिंसा का दोष लगाना । (२) झूठ न बोलने पर भी झूठ बोलने का दोष लगाना (३) चोरी न करने पर भी चोरी का दोष लगाना ( ४ ) ब्रह्मचर्य का भंग नहीं करने पर भी दुराचार का दोष लगाना (५) झूठमूठ कह देना कि कोई हिंजड़ा है या (६) झूठमूठ कह देना कि कोई क्रीत दास है । विनय : धर्म का मूल मेरी सुदृढ़ आस्था है कि विनय धर्म का मूल होता है— विनय की जड़ पर ही आत्म-धर्म फूलता फलता है। मैं विनय का अर्थ लेता हूं, विशेष रूप से झुकना नम्र बनना । क्यों झुकना ? इसलिये कि विनय रूप क्रिया से आठ प्रकार के कर्मों को अलग करने का पुष्ट हेतु उत्पन्न करना । इसमें सम्माननीय, गुरुजनों के आने पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, उन्हें आसन देना, उनकी सेवा सुश्रूषा करना आदि ऐसे सभी शुभ कार्य सम्मिलित है। मैं मानता हूं कि विनीत पुरुष ही संयमवन्त होता है और जो विनय रहित होता है, वह न तो संयम का सम्यक् रीति से पालन कर सकता है और न ही तप का आराधन । जो गुरु की आज्ञा पालता है, उनके पास रहता है, उनके इंगित तथा आकारों को समझता है, वही शिष्य विनीत कहलाता है। जैसे संसार में सुगंध के कारण चन्दन, सौम्यता के कारण चंद्रमा और मधुरता के कारण अमृत प्रिय होता है, उसी प्रकार विनय के कारण मनुष्य लोक प्रिय बन जाता है। इसलिये बुद्धिमान पुरुष विनय का माहात्म्य समझ कर विनम्र बनता है। इससे लोक में उसकी कीर्ति होती है और वह सदनुष्ठानों का उसी प्रकार आधार रूप होता है जिस प्रकार यह पृथ्वी प्राणियों के लिये आधार होती है। विनीत शिष्य क्रोधी गुरु को भी अक्रोधी बना देता है। विनय के मूल सात भेद बताये गये हैं जिसके अवान्तर से १३४ भेद होते हैं। वे इस प्रकार है –(१) ज्ञान विनय (२) दर्शन विनय (३) चारित्र विनय (४) मन विनय (५) वचन विनय (६) काया विनय तथा (७) लोकोपचार विनय । १३४ अवान्तरभेद (१) ज्ञान विनय के पांच — मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मनः पर्यय ज्ञान, केवल ज्ञान । (२) दर्शन विनय के दो — सुश्रूषा व अनाशातना । सुश्रूषा विनय के दस भेद - अभ्युत्थान, आसनाभिग्रह, आसन प्रदान, सत्कार, सम्मान, कीर्तिकर्म, अंजलिप्रग्रह, अनुगमनता, पर्युपासनता व प्रतिसंसाधनता । अनाशातना विनय के ४५ भेद - अरिहन्त, अरिहन्त प्ररूपित धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, सांभोगिक, क्रियावान्, मतिज्ञानवान् श्रुतज्ञानवान्, अवधि ज्ञानवान्, मन:पर्ययज्ञानवान् एवं केवल ज्ञान्वान्–इन पन्द्रह की आशातना नहीं करने याने इनका विनय करने, भक्ति करने और गुणग्राम करने रूप ४५ भेद हो गये । (३) चारित्र विनय के पांच भेद - सामायिक, छेदों पस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय यथारचात चारित्र - इन पांचों प्रकार के चारित्रधारियों का विनय करना । (४) मन विनय के दो भेद – प्रशस्त मन एवं अप्रशस्त मन । अप्रशस्त मन विनय के बारह ३३६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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