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________________ अन्य अपेक्षा से प्रायश्चित तप के पचास भेद भी किये गये हैं : (१) मूल प्रायश्चित दस प्रकार का आलोचना के योग्य, प्रतिक्रमण के योग्य, आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य, विवेक के योग्य, व्युत्सर्ग के योग्य, तप के योग्य, छेद के योग्य, मूल के योग्य, अणवठ्ठप्पारिहे (तप के बाद दुबारा दीक्षा देने योग्य) पारंचियारिहे (गच्छ से बाहर करने योग्य)। (२) प्रायश्चित देने वाले के दस गुण—वह आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अपव्रीडक (लज्जित शिष्य की मधुरता से लज्जा दूर करके आलोचना कराने वाला), प्रकुर्वक (आलोचित अपराध का प्रायश्चित - देकर अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ), अपरिस्रावी (आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के सामने प्रकट नहीं करने वाला) निर्यापक (अशक्त साधु को थोड़ा थोड़ा प्रायश्चित देकर निर्वाह करने वाला) अपायदर्शी (आलोचना नहीं लेने में परलोक का भय तथा दूसरे दोष दिखाने वाला) प्रियधर्मा (धर्म प्रेमी) तथा दृढ़धर्मा हो। (३) प्रायश्चित लेने वाले के दस गुण-वह जाति सम्पन्न, कुल सम्पन्न, विनय सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, दर्शन सम्पन्न, चारित्र सम्पन्न, क्षमावान्, दान्त (इन्द्रियों का दमन करने वाला), अमायी (निष्कपटी) तथा अपश्चातापी हो। (४) प्रायश्चित के दस दोष-आकंपयित्ता (प्रसन्न होने पर गुरु थोड़ा प्रायश्चित देंगे यह सोच कर उसे सेवा से प्रसन्न करके फिर आलोचना करना) अट्ठमाणइत्ता (बिल्कुल छोटा अपराध बताने से थोड़ा दंड देंगे यह हमें सोचकर अपराध को छोटा करके बताना) दिलृ (जिस अपराध को आचार्य ने शुरू किया हो उसी की आलोचना करना) वापकं (सिर्फ बड़े बड़े अपराधों की आलोचना करना) सुहुम (जो अपने छोटे छोटे अपराधों की भी आलोचना कर देता है, वह बड़े अपराधों को कैसे छोड़ सकता है—यह विश्वास पैदा करने के लिए सिर्फ छोटे-छोटे अपराधों की आलोचना करना) छिन्नं (अधिक लज्जा के कारण प्रछन्न स्थान में आलोचना करना) सद्दालु अयं (दूसरों को सुनाने के लिए जोर जोर से आलोचना करना) बहुजण (एक ही अतिचार की कई गुरुओं के सामने आलोचना करना) अव्वत्त (साधु को किस अतिचार के लिए कैसा प्रायश्चित दिया जाता है—इसका पूरा ज्ञान नहीं हो उसके सामने आलोचना करना) एवं तस्सेवी (जिस दोष की आलोचना करनी हो उसी दोष को सेवन करने वाले आचार्य के पास आलोचना करना। (५) दोष प्रतिसेवना के दस कारण-दर्प-अहंकार, प्रमाद, अनाभोग (अज्ञान), आतुर (पीड़ा की व्याकुलता) आपत्ति (द्रव्य क्षेत्र काल भाव सम्बन्धी) संकीर्ण (संकुचित स्थान अथवा शंकित दोष) सहसाकार (अकस्मात्) भय, प्रद्वेष, विमर्श। प्रायश्चित का पहला उद्देश्य जब पाप शुद्धि होता है तो मैं मानता हूँ कि इस तप की आराधना पूर्ण शुद्ध हृदय से की जानी चाहिये । प्रायश्चित के साथ मायाचार कतई योग्य नहीं होता है। किन्तु ऐसा भी होता है कि मनुष्य हृदय में कपट को स्थान देकर बाहर निम्न कारणों से प्रायश्चित करने का ढोंग दिखाता है : (१) निन्दा और अपमान से बचने के लिए (२) उपपात की गर्दा बचाने के लिए (३) मनुष्य जन्म की गर्दा बचाने के लिए (४) विराधक न समझे जाने के लिए (५) आराधक होना दिखाने के लिए (६) आलोचना करना दिखाने के लिए (७) अपने को दोषी न दिखाने के लिए तथा (८) मायावी नहीं समझें इस भय के लिये। किन्तु ऐसा भी होता है कि ३३४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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