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________________ (११) अकंडूयक-शरीर को न खुजलाते हुए आतापना लेना। (१२) अनिष्ठीवक—निष्ठीवन (थूकना आदि) न करते हुए आतापना लेना। (१३) धुतकेशश्मश्रुलोम (धुयकेसमंसुलोम)-दाढ़ी-मूंछ आदि के केशों को न संवारते हुए अर्थात् अपने शरीर की विभूषा को छोड़कर आतापना लेना। ___ मैं कायाक्लेश तप का मूल अभिप्राय यह समझता हूँ कि विविध प्रकार से शरीर को विवेकपूर्वक ऐसे कष्ट दिये जाय जिससे एक ओर तो उसकी कष्ट सहिष्णुता बढ़ जाय और दूसरी ओर देह मोह की वृत्ति दुर्बल होती जाय। ऐसा कठिन तप आत्म बल की अपूर्व निष्ठा के साथ ही सफल बनाया जा सकता है। मैं ऐसे तप की आराधना करूंगा और शरीर के प्रति अपने प्रगाढ़ ममत्त्व को मन्दतर बनाता जाऊंगा। तप जितेन्द्रियता का मेरा विचार है कि देह मोह की मन्दता के साथ इन्द्रियों की उद्दीपक शक्ति स्वयं ही नष्ट होने लगती है। फिर भी जिस प्रकार कछुआ अपने को सुरक्षित करने के लिए अपने ढालनुमा ढांचे में संकुचित हो जाता है, उसी प्रकार से इन्द्रियों का गोपन करना आवश्यक होता है ताकि काम भोगों की वृत्तियाँ उन्हें किसी प्रकार का आघात न पहुँचा सके । इन्द्रियों का गोपन करना ही छठे प्रकार का प्रतिसंलीनता का तप कहलाता है और इसी तप की सम्यक् आराधना से जितेन्द्रिय अर्थात् इन्द्रिय-जयी बना जा सकता है। वस्तुतः इन्द्रिय-जयी ही आत्म-जयी होता है। प्रतिसंलीनता तप के चार भेद बताये गये हैं : (१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता-शुभ अथवा अशुभ विषयों अर्थात् भोग वृत्तियों में रागद्वेष के भावों को छोड़ कर इन्द्रियों को वश में करना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता का तप कहलाता है। शुभ विषय में राग न हो तथा अशुभ विषय में द्वेष नहीं आवे तो तटस्थ वृत्ति का विकास होगा एवं जीवन में समभाव प्रभावी बनेगा। (२) कषाय प्रतिसंलीनता—क्रोधादि कषायों का अपने भावों में उदय न होने देना तथा जो कषाय भाव उदय में आ गये हों उन्हें विफल कर देना कषाय प्रतिसंलीनता का तप है। जब इन्द्रियों को जीतने का प्रयत्न सफल बनने लगता है तो कषाय भावों का निरोध भी अधिक श्रमसाध्य नहीं रहता। (३) योग प्रतिसंलीनता-अकुशल मन, वचन, काया के व्यापारों को रोकना तथा कुशल व्यापारों में उदीरणा (प्रेरणा) करना योग प्रतिसंलीनता का तप होता है। अशुभता अकुशलता होती है तथा शुभता कुशलता, अतः अशुभ व्यापार वृत्ति से मन, वचन, काया को शुभ व्यापार वृत्ति में लाना तथा उन्हें वहीं बनाये रखना इस तप का मुख्य उद्देश्य होता है। (४) विविक्त शय्यासनता-स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित एकान्त स्थान में रहना यह विविक्त शय्यासनता का प्रतिसंलीनता तप होता है। इसका अभिप्राय यह है कि काम संसर्गजनितता का कोई दोष तपाराधक को नहीं लगे। इस तप के ये मुख्य चार भेद होते हैं जो अवान्तर से तेरह भी बताये गये हैं : इंद्रिय प्रति संलीनता के पांच-(१) श्रोत्रेन्द्रिय प्रतिसंलीनता-श्रोत्रेन्द्रिय को उसके विषयों की ओर जाने से ३३१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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