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________________ (२) आयंबिल—नमक मसाला व विगय रहित रोटी भात आदि को धोवण या उष्ण पानी में डाल कर आहार करना आयम्बिल कहलाता है। (३) आयामसिक्थभोजी-चावल आदि के पानी में पड़े हुए धान्य आदि का आहार करना। (४) अरसाहार-नमक मिर्च आदि मसालों के बिना रस रहित आहार करना । (५) विरसाहार–जिनका रस चला गया हो ऐसे पुराने धान्य या भात आदि का आहार करना। (६) अन्ताहार—जघन्य अर्थात् जो आहार बहुत गरीब लोग करते हैं ऐसे चने चबीने आदि खाना। (७) प्रान्ताहार–बचा हुआ आहार करना । (८) रूक्षाहार—बहुत रूखा-सूखा आहार करना। इसे तुच्छाहार भी कहा गया है अर्थात् सत्त्व रहित तुच्छ एवं निःसार भोजन करना। (६) निर्विगय–तेल, गुड़, घी आदि विगमों से रहित आहार करना । मैं रस परित्याग तप को रसना-संयम के रूप में देखता हूं, इसलिये मानता हूं कि घी आदि रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिये क्योंकि प्रायः करके रसों का सेवन मनुष्यों के मन में काम का उद्दीपन करता है। वैसे उद्दीप्त मनुष्य की तरफ काम वासनाएं ठीक उसी तरह से दौड़ी हुई चली आती हैं जिस तरह स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की तरफ पक्षी दौड़े आते हैं। पौष्टिक एवं रसीला भोजन विषय वासनाओं को उत्तेजना देता है अतः संयम साधक को ऐसे भोजन का सदा त्याग रखना चाहिये। सांसारिकता का त्याग करने वाला साधु अगर स्वादवश स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में भिक्षा के लिये जाता है तो मानना होगा कि वह साधुत्व से बहुत दूर है। वह साधु नहीं, स्वादु होगा। रस परित्याग तप उसे कहा गया है, जब साधु या साध्वी अशनादि का आहार करते समय, स्वाद के लिये ग्रास को मुंह में बांई ओर से दाहिनी ओर तथा दाहिनी ओर से बांई ओर न करे। इस प्रकार स्वाद का त्याग करने से साधु आहार विषयक लधुता– निश्चिन्तता प्राप्त करता है। जिह्वा को वश में रखने वाले अनासक्त साधु को सरस आहार में लोलुपता का त्याग करना चाहिये तथा स्वाद के लिये नहीं, संयम के निर्वाह मात्र के लिये ही भोजन करना चाहिये । स्वाद रहित नीरस भिक्षा पाकर भी साधु को उस की हीलना नहीं करनी चाहिये। जैसे पहिये को बराबर गति में रखने के लिये धुरे में तेल लगाया जाता है, उसी प्रकार शरीर को संयम यात्रा के योग्य रखने के लिये ही साधु को आहार करना चाहिये। साधु कभी भी न स्वाद के लिये भोजन करे, न रूप के लिये, न वर्ण के लिये और न ही बल के लिये भोजन करे। मेरे विचार से रसना जय ही आत्मजय का मूलाधार बनता है। इसी दृष्टि से रसनेन्द्रिय पर नियंत्रण साधने के लिये आहार सम्बन्धी तपों का विविध एवं विस्तृत प्रकार से निरूपण किया गया है। आहार जितना मित और सादा होता है, उतना ही सादा और सीधापन विचारों में रहता है तथा देह-मोह भी घेरता नहीं है। रस परित्याग तप की कठिनता का यही कारण है। स्वाद को जीत लेने ३२६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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