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________________ मेरे इस उद्देश्य की पूर्ति धर्मनीति पर चल कर ही श्रेष्ठ रीति से हो सकती है । मेरी आत्मा अपने मूल स्वभाव को ग्रहण करती हुई एक दिन उसके अपने धर्म को आत्मसात् कर ले इसके लिये मुझे धर्माराधना की भावनापूर्ण प्रक्रिया अपनानी होगी । धर्म प्राप्ति के पथ पर आगे से आगे बढ़ते रहने का ही नाम धर्माराधना है। धर्माराधना अर्थात् धर्म की आराधना करना कि वह धर्म-आत्मस्वभाव प्राप्त हो । इस दिशा में मैं आप्त वचनों का पावन स्मरण करता हूँ जिनमें कहा गया है कि धर्म ही आत्मा के लिये उत्कृष्ट मंगल है - वह धर्म जो अहिंसा, संयम तथा तप की आराधना से प्राप्त होता है और जिसके मन में सदा ऐसे धर्म की आराधना बसती है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं । अहिंसा, संयम एवं तप रूपी धर्माराधना की सफलता के लिये वीतराग देवों की आज्ञा है—हे समतादर्शी की आज्ञा को पालन करने की इच्छा रखने वाली बुद्धिशालिनी आत्मा, तू अनासक्त हो जा, अनुपम आत्मिक रूप को देख समझ कर अपने कर्म शरीर को दूर हटा । अपने आप को नियंत्रित कर तथा अपने आपके ही मूल स्वरूप में घुलमिल जा । जैसे अग्नि जीर्ण लकड़ियों को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार अपने मूल स्वभाव में लीन आत्मा अनासक्त बन कर राग-द्वेष को नष्ट कर देती है। जो संयमित नैत्रों के होते हुए भी इन्द्रियों के प्रवाह में आसक्त हो जाता है, वह अज्ञानी होता है। फलस्वरूप उसके कर्मबंधन बिना टूटे हुए रहते हैं और उसके विभाव संयोग बिना नष्ट हुए। ऐन्द्रिक विषयों में रमण करने के विभाव के वशीभूत होकर आत्मा इन्द्रियासक्ति के अंधकार के प्रति अनजान होती है, तब उसके लिये समतादर्शी वीतराग देवों के उपदेश तथा उनकी आज्ञा का कोई लाभ नहीं होता है । किन्तु जो आत्मा प्रमादजन्य विषमता में नहीं गिरती है, वह समता की साधना में प्रगति करती । अतः हे आत्मा, तू इस देह संगम को देख । यह देह किसी का पहले छूटता है और किसी का बाद में, लेकिन छूटता अवश्य है क्योंकि उसका स्वभाव नश्वर है और तेरा स्वभाव अनश्वर, ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। मेरे द्वारा यह सुना गया है और मेरे द्वारा आत्मा सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त किया गया है कि बंध रूप अशान्ति तथा मोक्ष रूप शान्ति दोनों के कारण तेरे अपने ही मन में रहे हुए हैं । अतः समता धर्म की मानसिकता के साथ अपने कर्मों से युद्ध कर - बाहरी व्यक्तियों से युद्ध करने में कोई लाभ नहीं - तू विषमता से युद्ध करने में अपने को योग्य बना — जो निश्चय ही दुर्लभ है । ऐसे हैं अनन्त प्रेरणा देने वाले आप्त वचन, जो आत्मा को अपने धर्म को प्राप्त करने हेतु ललकारते हैं। ऐसे वचनों को हृदयस्थ करना, वीतराग देवों की आज्ञा में चलना तथा आत्म धर्म को प्राप्त करना मैं अपना पावन कर्त्तव्य मानता हूं। आत्म शुद्धि एवं विभाव मुक्ति के ये तीन सोपान हैं— अहिंसा, संयम और तप । पहले अहिंसा के सोपान पर आरूढ़ होने के लिये मुझे हिंसा से विरत होना पड़ेगा - स्थूल और तदनन्तर सूक्ष्म हिंसा से । मैंने ज्ञान पाया है कि कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं और कुछ लोग बिना प्रयोजन भी हिंसा करते हैं । कुछ लोग क्रोध से हिंसा करते हैं, कुछ लोग लोभ से हिंसा करते हैं और कुछ लोग अज्ञान से हिंसा करते हैं। मुझे हिंसा के इन सभी द्वारों को बंद कर देना होगा क्योंकि हिंसा के कटु फल को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है । प्राणवध रूप हिंसा चंड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणा रहित है, क्रूर है— और महाभयंकर है । मैं जानता हूं कि जो भी कर्म बंधन एवं कर्म मुक्ति के विषय में गहरी शोध करने वाला होता है, वह अहिंसा का पालन करने वाला मेघावी क्षुद्ध बुद्धि वाला होता है। अपने स्वभाव में रमण करने वाली २६२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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