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________________ जाता रहता है। जागतिक वातावरण पर एक व्यक्ति के रूपान्तरण का कितना व्यापक और विस्तृत प्रभाव हो सकता है— इस विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है। आत्म शक्ति के विकास की प्राभाविकता असीम होती है। शुभ परिवर्तन का पराक्रम मेरा आन्तरिक रूपान्तरण अर्थात् आत्म-शुद्धि का मेरा पुरुषार्थ फलित होता है शुभ परिवर्तन के पराक्रम के रूप में । मेरा यह पराक्रम जितनी उच्चता, गूढ़ता और दृढ़ता ग्रहण करता जाता है, उतना ही शुभ परिवर्तन का क्षेत्र भी विस्तृत और व्यापक होता चला जाता है । आत्म-पराक्रम से स्फुरित होने वाली शुभ परिवर्तन की प्रक्रिया देश और काल की सीमाओं से भी परे होती है। ऐसी असीम होती है इस पराक्रम की ओजस्विता । शुभ परिवर्तन की क्या परिभाषा ? एक शिशु जब जन्म लेता है तो निश्छल और निष्पाप - हृदय होता है। तब उसकी प्रत्येक लीला सबको सुहाती है। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है ? यह शुभता का प्रभाव होता है । बच्चा किसी का बुरा नहीं सोचता, बुरा नहीं बोलता और बुरा नहीं करता, इसलिये हमें सुहाता है। लेकिन चिन्तन करने लायक बात यह है कि यदि हम विवेकपूर्वक जीवन यापन करने लगें किसी का बुरा नहीं सोचें, बुरा नहीं बोले और बुरा नहीं करें, बल्कि हम सभी का भला सोचें, भला बोलें और भला करें तो सोचिये कि हमारी लोकप्रियता कैसी होगी ? क्या सुदूर क्षेत्र भी हमारी लोकप्रियता से प्रभावित नहीं हो जायेंगे ? यह किसका प्रभाव होगा ? हमारी शुभता का ही न ? मन की शुभता वचन की शुभता और कार्य की शुभता की कसौटी यही है कि क्या वह अपने से अन्य को सुख पहुँचाती है ? उसके दुःख का हरण करती है ? लोग मेरी इस शुभता का आकलन उसके बाह्य प्रभाव से ही करेंगे। वैसे भी आन्तरिकता और बाह्यता को एकदम अलग करके नहीं देख सकते हैं। मेरी आन्तरिकता बाह्य-प्रभावी होती है तो वह बाह्य प्रभाव दूसरों की आन्तरिकता को प्रभावित बनाता है और इसी क्रम में शुभता का विस्तार होता है तो इसी क्रम में अशुभता भी फैलती है। जहाँ अशुभता स्वयं के पतन के साथ बाहर भी विषय और कषाय की आग लगाकर दूसरों को जलाती है, वहाँ शुभता का प्रवाह भीतर - बाहर एक-सी शीतलता फैलाकर सबकी नैतिक उन्नति का पथ प्रशस्त करती है । शुभता के स्वरूप की अनुभूति लेकर मैं सोचता हूँ कि मेरा पराक्रम परिवर्तन का चक्र कैसे और किधर से घुमावे ? मैं देखता हूँ कि वर्तमान जागतिक वातावरण में अशुभता ही बलवती बनी हुई है। शुभता के साधनों का भी अशुभता फैलाने में दुरुपयोग किया जा रहा है। विज्ञान विशेष ज्ञान को कहते हैं तथा भौतिक क्षेत्र में ही आज विज्ञान ने जो प्रगति की है और जो साधन व उपकरण उपलब्ध कराये हैं यदि उनका उपयोग जनहित में किया जाय तो निश्चय ही सार्वजनिक जीवन की कई विषम समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है तथा सबको समान भाई-चारे की राह पर आगे बढ़ाया जा सकता है। किन्तु विज्ञान कर क्या रहा है या यों पूछें कि सत्ता और सम्पत्ति के पीछे बावला बना मनुष्य उस विज्ञान का किस कदर दुरुपयोग कर रहा है तथा उसे किस रूप में विश्व-विनाश का साधन बना रहा है ? क्या आवश्यकता है अणुबमों, प्रक्षेपास्त्रों आदि संहारक शस्त्रास्त्रों की ? यह प्रभाव की होड़ ही क्यों लगती है ? क्यों सम्प्रदायों, संगठनों या राष्ट्रों के नाम पर २८६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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