SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सकेगा और यही निश्चय मेरे अपने पुरुषार्थ को सदा व सर्वत्र सजग बनाये रखेगा कि विभावगत कोई भी वृत्ति या प्रवृत्ति मेरे निश्चय को कमजोर बनाने या उलटने का दुस्साहस न करे। मेरा पुरुषार्थ मेरी आत्मा को सजग रखेगा तो मेरे मन और इन्द्रियों को भी आत्मिक सजगता के क्षेत्र में सक्रिय, कि वे भौतिक सुखों की ओर प्रलुब्ध न हों तथा विषय-कषाय जन्य प्रमाद को एकत्रित करके विभाव गत दशा को अधिक प्रगाढ़ न बनावें। दूसरे सोपान पर मेरा पुरुषार्थ मेरी समस्त आत्मिक एवं शारीरिक शक्तियों को विभाव के क्षेत्र से हटाकर उन्हें स्वभाव के क्षेत्र में स्थापित करेगा कि वे पहले से भी अधिक वेग के साथ स्वभाव के क्षेत्र में क्रियाशील बनें। मेरा पुरुषार्थ इस रूप में मेरी समूची आन्तरिकता को असद् से सद्, असत्य से सत्य तथा अंधकार से ज्योति की दिशा में आगे बढ़ायगा और वही मेरी आन्तरिकता का सच्चा रूपान्तरण होगा। तब भी मेरा पुरुषार्थ थमेगा नहीं, उससे भी अधिक प्रबलता के साथ वह आत्मिक स्वभावगत स्थितियों को संपुष्ट बनाता रहेगा कि विभावगत दशा क्षीणतर बनती जाय । मेरा यही पुरूषार्थ संयम और तप की कठोर आराधना द्वारा समस्त कर्मों का मूलोच्छेद करने के समय पराक्रम का रूप ग्रहण कर लेगा —ऐसा पराक्रम जो आत्मा के विभाव को समूचे रूप से विनष्ट करके पूर्णतया उसे अपने मूल स्वभाव में सदा काल के लिये प्रतिष्ठित कर देता है। क्योंकि आत्मा की विभावमुक्ति ही स्वभाव स्थिति होती है तथा उसकी सम्पूर्ण स्वभाव स्थिति ही उसकी धर्म प्राप्ति कही जायगी। यह धर्म प्राप्ति ही आत्मा का साध्य है, कारण अपने मूल स्वभाव में स्थिति ही उसकी मुक्ति है। मेरे याने एक व्यक्ति के आन्तरिक रूपान्तरण का पूरे जागतिक एवं सामाजिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में कितना महत्त्व कूता जायगा—उसका मूल्यांकन भी आवश्यक है। जागतिक वातावरण पर प्रभाव समझिये कि मैने अपना आन्तरिक रूपान्तरण कर लिया है याने कि मैं अपने विचार तथा आचार में पूरी तरह से सतर्क हो गया हूं। मैं अपनी ओर से किसी भी प्राणी के किसी भी प्राण को कष्ट नहीं पहुंचाने का प्रयास करता हूं, बल्कि कष्टित प्राणों को देखकर अनुकम्पित होता हूं और उसे सुख पहुंचाने का यल करता हूं। मैं उत्सुक भी रहता हूं कि जितना अधिक मैं कर सकूँ, मैं अपनी समस्त आत्मिक शक्तियों को स्व-पर कल्याण में नियोजित रखू। तो मेरी ऐसी अवस्था का क्या मूल्यांकन है? एक बात तो निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि इस रूप में मेरा अपना जीवन स्तर समुन्नत हो रहा है तथा मेरी अपनी व्यक्तिगत निष्ठा और नीति तो अहिंसक स्वरूप ग्रहण कर रही लेकिन प्रश्न है कि मेरा यह व्यक्तिगत विकास क्या मेरे ही लिये है अथवा उसका कोई मेरे से इतर लाभ भी है ? मैं यह प्रश्न इस विचार से उठा रहा हूं कि जब केवल आत्मकल्याण की बात की जाती है तो क्या वह केवल स्वार्थ की ही बात कही जायगी? यह बात सही नहीं है। मैं इस संसार में हूं तो मैं भी इस संसार की गणना में सम्मिलित हूं और यदि मैने अपने जीवन में विकास साधा है तो संसार के उतने भाग का कल्याण हुआ है—इसमें कोई सन्देह नहीं है। किन्तु इस आत्म-कल्याण का महत्त्व उससे भी कई गुना अधिक है। २८७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy