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________________ ऐसी अनियंत्रित अवस्था ही उसकी सुप्राप्ति बन जाती है। तब उसका भटकना अपने विभाव में होता है। वह विभाव उसे कर्म बंधनों में बांधता रहता है और उसे भारी बनाता रहता है । फिर वह उस कर्म भार के कारण नीचे से नीचे गिरती रहती है और विभाव की सघन स्थिति में फंस जाती है। मैं अनुभव करता हूं कि आत्मा मूल रूप में हलकी होती है और जब तक वह हलुकर्मी रहती है तब अपने स्वभाव के ऊपर तैरती रहती है। किन्तु कर्मों के भार से जब वह भारी बनने लगती है तो फिर वह डूबने लगती है । विभाव की अतल गहराई में वहां कहां तक नीचे डूबती चली जाती है, वह उसकी प्रमाद अवस्था की सघनता पर निर्भर करता है। यह नियम भी नहीं है कि जब वह तैरती है तो तैरती ही रहती है अथवा डूबना शुरू करती है तो डूबती ही चली जाती है क्योंकि आत्मा का यह तैरना और डूबना उसकी भाव- सरणियों पर आधारित होता है । तैरते रहने की दशा में जब भावनाएं विकृत होती है तो वह डूबने लगती है । डूबते- डूबते भी जिस रूप में उसकी भावनाओं में संशोधन होने लगता है तो उस परिमाण में वह फिर ऊपर उठने लगती है। यह तैरना और डूबना इस प्रकार निरन्तर चलता रहता है जो गतियों में परिलक्षित होता है । जैसे कि यह आत्मा के ऊपर उठ आने का प्रमाण है कि मुझे मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ । यदि मैं इस उपलब्धि का सदुपयोग करूं और अपनी भावनाओं को शुभता के रूप में परिवर्तित करता हुआ चलूं तो मैं अपनी आत्मा को और ऊपर उठाता हुआ चल सकता हूं—यहां तक कि वह सतह तक पहुंच जाय और पूर्णकर्मी बन जाय । इसके विपरीत मैं आत्माभिमुखी न रहकर संसार के काम भोगों में लिप्त होता रहूं तो तैरने के प्राप्त स्तर को छोड़कर नीचे डूबता चला जाऊंगा और यह भी मेरी करणी पर निर्भर करेगा कि मैं कितना नीचे पहुंच जाऊं। इस जन्म के बाद उस दृष्टि से मैं आगामी जन्म में पशु योनि प्राप्त करलूं या नरक में ही पहुंच जाऊं। इसी प्रकार तिर्यंच या नरक गति में रहे हुए जीव भी अपनी भावनाओं का यत्किंचित परिष्कार करते हुए ऊपर की गतियों में आ सकते हैं। जब तक ऊपर उठने और नीचे जाने का आत्मा का यह क्रम बना रहता है तब तक उसका संसार में भव भ्रमण भी बना रहता है— स्वभाव और विभाव में आवागमन चलता रहता है। कभी स्वभाव में अधिक स्थिति हो जाती है तो कभी विभाव में भटकाव बढ़ जाता है। जब विभाव के घेरे से पूरी तरह निकल कर आत्मा स्वभाव में स्थित हो जाती है तभी उसकी विभाव से मुक्ति होती है । अपने स्वभाव तथा विभाव में इधर उधर आने जाने की आत्मा की प्रक्रिया को एक दृष्टान्त से समझें । एक लकड़ी के टुकड़े का स्वभाव पानी की सतह पर तैरना होता है। उसे आप पानी में डालें तो वह पानी की सतह पर तैरने लगेगी। अब उसी लकड़ी के टुकड़े को हल्के टिन की डिबिया में बंद करके पानी में डालें तो वह कुछ कुछ नीचे डूबने लगेगा और उसी लकड़ी के टुकड़े को मोटे लोहे के डिब्बे में बंद करके पानी में डालें तो वह कुछ-कुछ नीचे डूबने लगेगा और उसी लकड़ी के टुकड़े को मोटे लोहे के डिब्बे में बन्द करके पानी में डालें तो वह डूब कर पुनः तले तक चला जायगा । इसी तरह उसे तले से उस डिब्बे से निकाल कर खुला छोड़ दें तो वह ठेठ ऊपर उठ आयगा । कहने का आशय यह है कि उस हल्के लकड़ी के टुकड़े के साथ जितना वजन बंधा होगा उसी परिमाण में वह पानी की गहराई में नीचे उतरेगा या ऊपर उठेगा। अब उस लकड़ी के टुकड़े का पानी की सतह पर तैरना स्वभाव है और उसके साथ डिबिया या डिब्बे का बंधन उसका विपरीत स्वभाव या विभाव होता है । वह टुकड़ा स्वभाव के कारण तैरता है और विभाव के कारण डूबता है। आत्मा की तुलना इसी लकड़ी के टुकड़े से कीजिये । मूल स्वभाव से आत्मा संसार सागर २७६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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