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________________ करता है, क्योंकि वह समस्त प्राण, भूत सत्व और जीवों को अपने मित्र समझता है, किसी के भी प्रति तनिक भी वैरभाव नहीं रखता है। (२०) अप्रमत्तता—आत्म-विकास के विस्तृत मार्ग को एक वाक्यांश में इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि एक समय (काल का सूक्ष्मतम घटक) के लिये भी प्रमाद मत करो। इससे प्रमाद का अति आत्मघातक स्वरूप भी स्पष्ट हो जाता है। विषय-कषाय के उग्र आवेश में रमण करते हुए आत्मा जिस मूर्छा एवं उन्मत्तता को प्राप्त होती है, वह दुरवस्था उसके प्रमाद की होती है। प्रमाद के वशीभूत होकर वह हिंसा भी करती है और असत्य, चौर्य, कुशील व परिग्रह का सेवन भी करती है। इस प्रकार प्रमाद उसके पतन का महाद्वार बन जाता है। इसी दृष्टि से अप्रमत्तता को आत्म जागृति का रूपक कहा गया है। उन्माद हटे, तभी तो बुद्धि प्रकट हो सकती है और बुद्धि सुबुद्धि बनकर स्व-पर कल्याण के साध्य को साध सकती है। मद्य, निद्रा, विकथा, विषय और प्रमाद जहां सुषुप्ति का कारण भूत होता है वहाँ अप्रमत्तता आत्मा को सदा जागृत रखती है और विकास के मार्ग पर सुरक्षा प्रदान करती है। (२१) समभाव-समभाव को समत्व योग कहिये जिसके सद्भाव में मनुष्य सम्पत्ति और विपत्ति में, मित्रता और शत्रुता में तथा मनोज्ञ और अमनोज्ञ में समान भाव रखता है तथा उसी सभी छोटे बड़े या ऊंचे नीचे प्राणियों के प्रति भी अपने सकल व्यवहार में वह समानता बरतता है। समभाव की यह साधना आत्मदमन, जितेन्द्रिय तथा आचरण समता के कठिन अभ्यास से ही सफल बनती है। एक समभावी ही सुव्रती हो सकता है और सुव्रत से समता की उत्कृष्ट श्रेणियों में पहुंचा जा सकता है। समभाव का अड़तालीस मिनिट की सामायिक के रूप में प्रारंभ हुआ प्रशिक्षण सम्पूर्ण जीवन की सामायिक-साधुता में परिणत हो सकता है। समभाव ही भीतर बाहर की सारी गांठें खोल कर साधक को निग्रंथ बना देता है। समत्व योगी की अभेद दृष्टि हो जाती है। इस प्रकार ज्ञेय हेय एवं उपादेय तत्त्वों का ज्ञान इस दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देता है कि सबको जानों बुरों को छोड़ो और अच्छों को अपना लो। किन्तु इसके साथ ही आत्मा में यह चेतना जागनी भी जरूरी है कि उसका अपना मूल स्वभाव क्या है, वह आवृत्त होकर विभाव कैसा ढल गया है तथा विभाव मिटाकर स्वभाव को प्रकट करने के सहयोगी तत्त्व कौन कौन से हो सकते हैं ? आत्म-स्वभाव-विभाव चर्चा मैं पराक्रमी हूं, पुरुषार्थी हूं और समझिये कि मैंने ज्ञेय, हेय और उपादेय तत्त्वों का ज्ञान भी कर लिया है। किन्तु उपादेय तत्त्वों का सहयोग मेरी जागृत आत्मा ही ले सकती है। अतः मुझे आत्म स्वरूप का दर्शन करना होगा और यह अनुभव करना होगा कि मेरी आत्मा का मूल स्वभाव क्या है और वर्तमान में वह कितने स्व-भाव में और कितने विपरीत भाव (विभाव) में रमण कर रही है? फिर मुझे अपना पुरुषार्थ जगाना होगा कि मैं अपनी आत्मा को उपादेय तत्त्वों के ज्ञानाचरण के द्वारा विभाव से निकालू और स्व-भाव में अधिकाधिक प्रतिष्ठित करूं। अतः सर्वप्रथम मैं समझू कि आत्मा का मूल स्वभाव क्या होता है और उसके विभाव का कैसा रूपक बनता है ? आत्म-स्वभाव-विभाव की चर्चा से मैं आत्मा के वास्तविक विकास के मार्ग का सम्यक् प्रकारेण निर्धारण कर सकूँगा। २७७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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