SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाती है जिससे वह मलयुक्त बनी रहती है। जैसे मलयुक्त स्वर्ण को अग्नि में तपाने से वह शुद्ध बनता है, उसी प्रकार आत्मा जब अपने आपको कठिन तपश्चरण की आग में तपाती है तब उसका कर्म रूपी मैल नष्ट होता जाता है तथा उसका निर्मल स्वरूप प्रकाशित होता जाता है। तप कर्मों की निर्जरा करता है और आत्मा को मुक्ति की ओर ले जाता है। तप की आराधना देह-मोह को नष्ट करती है और आत्मानन्द को प्रकट करती है। आत्मा के विकास में तपाचरण का महत्त्वपूर्ण स्थान (१३) संयम तप करना यदि आग में तपना हैं तो संयम का अर्थ आत्म-मल का प्रक्षालन करना है। प्रक्षालन शान्त प्रक्रिया होती है तो तप एक कठिन प्रक्रिया। संयम का अर्थ है इच्छाओं का संशोधन ज्यों-ज्यों इच्छाओं के शंसोधन का अभ्यास संयम के माध्यम से बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों विषय-कषायों का आवेग, राग द्वेष की तीव्रता तथा प्रमाद की उन्मत्तता घटती जाती है और जीवन के सभी क्रिया कलाप आत्माभिमुखी होने लगते हैं। एक बार समता के साथ दृढ़तापूर्वक जब यह आत्मा अपने स्वरूप को समझ लेती है तो उसका पुरुषार्थ संयम के मार्ग पर सजग एवं सक्रिय बन जाता है। इसीलिये कहा है कि संयम पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान होता है, क्योंकि पल पल पर भटक जाने वाले मन तथा इन्द्रियों को संयमित करना होता है। संयम की साधना आत्मा की निर्मलता एवं तेजस्विता को प्रखर बनाती है। (१४) अभयव्रत्ति—जो मनुष्य अपने साथियों तथा अन्य प्राणियों के मन में अपनी शक्तियों के दुष्प्रयोग से भय उपजाता है, वह भयभीत भी रहता है, इस कारण भय को बहुत बड़ा दुर्गुण माना गया है। भय के भाव को जीतना ही अभय व्रत है। इसका लक्षण है कि सबको अभय बनाओ अपने समभाव. अपनी समदष्टि तथा अपने समतामय आचरण से और स्वयं भी अभय बन जाओ। अपने हृदय का समस्त स्नेह जो संसार के समस्त जीवों पर उडेल देता है और उन्हें सुखी बनाने के सच्चे पुरुषार्थ में जुट जाता है, वह अभय और निर्भय बन जाता है। जो आत्म बल को अभिवृद्ध बना लेता है, उसकी अभयता स्थायी और सुदृढ़ बन जाती है। आत्म बल के सिवाय अन्य सभी प्रकार के बल तुच्छ और भय प्रदायक होते हैं। आत्म बली ही अभय हो सकता है तो वही सभी को अभय दान भी दे सकता है। (१५) विनय-विनय, रूप तप और सद्गुण को धर्म का मूल कहा गया है। विनय गुण को अपनाये बिना धार्मिकता का आविर्भाव ही संभव नही बनता है। विनय मूल में होना चाहिये, तभी सभी आत्म-गुणों का विकास हो सकता है। अपने अभिमान को छोड़ने पर ही विनय प्रकट होता है। एक ओर अभिमान क्रोध आदि अन्य कषायों को उत्तेजित बनाता है तो दूसरी ओर अपने मद पोषण के लिये अपार सत्ता और सम्पति का संचय करने में ऊंधा बन जाता है। वहीं विनय गुण उस के आत्मिक अधःपतन की दिशा को ही बदल देता है और धर्म रूपी वृक्ष को हरा भरा बना देता है। विनय धर्म है, तप है और सम्पूर्ण आत्म-विकास का मूल है। ज्ञान विनय, दर्शन विनय आदि सात प्रकार के विनय से आत्म स्वरूप में धृति, मृदुता और कान्ति का संचार हो जाता है। (१६) वैराग्य-संसार में राग भाव का होना ही आत्मा की कलुषितता का मुख्य कारण है। द्वेष तो राग की ही प्रतिक्रिया का रूप होता है। अतः राग से विरत होने की भावना का नाम ही वैराग्य है और यही वैराग्य जब अपनी सम्पूर्ण उत्कृष्टता के रूप में प्रतिफलित होता है तब २७५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy