SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वासपूर्वक निवेदन करना चाहता हूं कि चाहे जैसी बाधाएं मेरे बीच में आवे, मैं समूचे पहाड़ को खोद दूंगा, गड्ढों और खाइयों को पाट दूंगा और इन लोगों की निवास व्यवस्था में सहायता करूंगा। मेरी सफलता मेरे अथक पुरुषार्थ से मिलेगी और मेरा पुरुषार्थ मेरे भीतर के बढ़ते हुए आनन्द के साथ आगे बढ़ता रहेगा। बाबा का चेहरा खिल उठा। तब बाबा ने दूसरे भक्त के चेहरे पर अपनी दृष्टि जमाई। वह कुछ नहीं बोला। बाबा ने ही पूछा- तुम चुप खड़े हो, क्या तुम्हें मेरे कथन में विश्वास नहीं है ? वह बाबा के चरणों में गिर पड़ा और रूंधे कंठ से बोला- मुझे आपके कथन में अटल विश्वास है, किन्तु.... । यह 'किन्तु' क्या है ? - बाबा कड़के । वह कहने लगा- इतना बड़ा पहाड़ भला मैं कैसे खोद सकूंगा ? मेरे लिये यह असंभव है। बाबा की ओजस्वी वाणी फूटी – तुम पुरुष होकर भी पुरुषार्थी नहीं हो। 'असंभव' शब्द पुरुषार्थी के शब्द कोष में होता ही नहीं है । पुरुषार्थी के लिये कोई भी दूरी अलंघ्य नहीं होती, कोई भी ऊंचाई या गहराई अभेद्य नहीं होती तथा कोई भी कार्य असंभव नहीं होता। हो सकता है कि कोई कार्य वह शरीर के माध्यम से न कर सके किन्तु उसकी भावना में असंभवता कहीं भी नहीं होती। क्या तुमने अपने साथी का उत्तर नहीं सुना ? कठिनाई से उसके मुंह से शब्द निकले - सुना है महाराज और मैं आज ही समझ पाया हूं कि हम दोनों की आन्तरिकता में कितना बड़ा अन्तर रह गया है ? मैं अब तक दोनों में समान विकास का ही अनुभव कर रहा था । मैं लज्जित हूं देव कि आज तो मैं इस पहाड़ को खोद डालने का विश्वास आपको नहीं दिला सकूंगा। मैं अपने सोये हुए पौरुष को जगाऊंगा और एक दिन आपके विश्वास को साकार बनाने का कठिन प्रयत्न करूंगा । बाबा का चेहरा खिला नहीं, लेकिन मुरझाया भी नहीं । वे इतना ही बोले - वत्स, यह तुम्हारी पुरुषार्थहीनता तुम्हारे प्रमाद के कारण है । प्रमाद को मिटाये बिना पुरुषार्थ नहीं जागता । पुरुषार्थ को जगाने के लिये निरन्तर यह सोचते रहना पड़ता है कि मैं क्या कर रहा हूं और मुझे क्या करना चाहिये ? और जब पुरुषार्थ जाग जाता है तो वह न कहीं भी थकता है और न कभी हारता है । वह असंभव को संभव बना देता है । मैं सोचता हूं कि मैं फक्कड़ बाबा का कौनसा भक्त हूं ? पहला या दूसरा ? अथवा कोई भी नहीं ? क्या आज मैं अपने पुरुषार्थ को सजग और सक्रिय बनाये हुए हूं ? या अभी भी मुझे अपने पुरुषार्थ को जागृत करना शेष है ? अथवा क्या अभी तक मैं अपना भावनापूर्ण निश्चय ही नहीं कर पाया हूं कि मुझे अपने अथक पुरुषार्थ को जगाना है और प्रमाद की गहरी नींद में सोया हुआ हूं ? मुझे अपनी दशा और विदशा पर तीखी नजर डालनी है। मैं अगर बाबा के किसी भी भक्त के समान नहीं होऊं तो मेरे लिये अतीव लज्जापूर्ण अवस्था है, जिसे बदलने के लिये मुझे तत्काल सन्नद्ध हो जाना चाहिये। फिर तुरन्त बाबा का पहला भक्त न भी बन सकूं तो दूसरा भक्त तो हो ही जाऊं - स्व- पर कल्याण हेतु अपने पुरुषार्थ को जगाने का संकल्प तो ले ही डालूं । चिन्तन, संशोधन एवं परिवर्तन की इस प्रकार की प्रक्रिया में मैं निरन्तर सोचता रहूं कि मैं पराक्रमी हूं, पुरुषार्थी हूं—अटूट पराक्रम एवं अथक पुरुषार्थ का धनी । ज्ञेय, हेय एवं उपादेय मैं पुरुषार्थी हूं तो मैं अपने पुरुषार्थ के क्षेत्रों का सम्यक् ज्ञान करूंगा और यह जानूंगा किन-किन तत्त्वों एवं विषयों को मैं समझं, उन में से किन-किन तत्त्वों एवं विषयों का मैं त्याग करूं । २६७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy