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________________ राग को भी त्याग दूं। जिस दिन मैं वीतराग भाव का वरण करूंगा, वह दिन मेरा धन्य होगा ऐसा मेरा मनोरथ चलता है। वीतराग भाव की अवाप्ति के साथ ही आत्मा की समदर्शिता एवं ज्योतिर्मयता अपनी पूर्णता को प्राप्त हो जाती है। यह अरिहंत पद का स्वरूप होता है और आत्मा जब सिद्ध पद को प्राप्त होती है तब तो मात्र ज्योति में ज्योति स्वरूप रूपान्तरित हो जाती है। यही आत्म विकास की महायात्रा का गंतव्य है। पांचवां सूत्र और मेरा संकल्प मेरी सुदृढ़ आस्था है कि मैं मूल रूप से समदर्शी हूं, ज्योतिर्मय हूं और यह आस्था ही मेरा सम्बल है कि मैं अपने सत्पुरुषार्थ की निरन्तर सक्रियता से कभी न कभी इस या आगामी जन्मों में अपने समदर्शिता तथा ज्योतिर्मयता के गुणों को प्राप्त कर सकूँगा। अतः मैं संकल्प करता हूं कि अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिये आत्मीय गुणों के प्रकटीकरण स्वरूप विभिन्न चरणों को संयम पूर्वक स्वीकार करता हुआ सर्व प्रथम विषय कषायों से विश्रान्ति लेते हुए योग व्यापार की वृद्धिशील शुभता का वरण करूंगा। भाव शुद्धि के क्रमिक अभ्यास के साथ ही गुणों के उच्चतर स्थानों पर मैं आरूढ़ होता जाऊंगा, समभाव एवं समदृष्टि की पुष्टता से समता रस का आस्वादन करूंगा तथा एक दिन समदर्शी एवं ज्योतिर्मय बनूंगा। मेरे इस समुन्नत आत्म स्वरूप का मूलाधार मन, वचन, कर्म का शुभत्व होगा- इस दृष्टि से मेरा संकल्प होगा कि मैं भावनाभिभूत होकर शुभ योगधारी बनूंगा। २६२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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