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________________ किया जा सके। (२) अप्रत्याख्यानावरण मान -जिस प्रकार हड्डी अनेक उपायों से नमती है, उसी प्रकार जो मान अनेक उपायों तथा अति परिश्रम से दूर किया जा सके। (३) प्रत्याख्यानावरण मान—जैसे काष्ठ (लकड़ी) तेल वगैरा की मालिश आदि से नम जाता है, वैसे जो मान थोड़े से उपायों से नमाया जा सके तथा (४) संज्वलन मान -जैसे बेंत बिना मेहनत के सहज ही में नम जाती है वैसे जो मान सहज ही छूट जाता है। जैसे क्रोध के चार प्रकार होते हैं, वैसे ही मान के भी चार प्रकार (१) आभोग निवर्तित (२) अनाभोग निवर्तित (३) उपशान्त तथा (४) अनुपशान्त होते हैं। मान के समानार्थक बारह नाम बताये गये हैं : (१) मान-कषाय (२) मद-हर्ष करना (३) दर्प-घमंड में चूर होना (४) स्तंभ-खंभे की तरह कठोर बने रहना (५) गर्व-अहंकार करना (६) अत्युक्रोश-अपने को दूसरों से उत्कृष्ट बताना (७) परपरिवाद-दूसरों की निन्दा करना (८) उत्कर्ष-अभिमान पूर्वक अपनी समृद्धि प्रकट करना और दूसरे की क्रिया से अपनी क्रिया को उत्कृष्ट बताना (६) अपकर्ष-अपने से दूसरों को तुच्छ बताना (१०) उन्नत-विनय को छोड़ देना (११) उन्नाम-वन्दनीय को भी वन्दन नहीं करना (१२) दुर्नाम-बुरी तरह से वन्दन करना। मायाविनी माया (३) माया-मन, वचन एवं काया की कुटिलता द्वारा परवंचना करना याने दूसरों के साथ कपटाई, ठगाई या दगा-धोखा करना। ऐसा आत्मा का परिणाम-विशेष माया कहलाती है। माया अज्ञान और अविद्या की जननी तथा अकीर्ति का कारण होती है। यदि माया के साथ तप, संयम आदि के अनुष्ठानों का सेवन किया जाता है तो वह भी नकली सिक्के की तरह असार होता है। वह स्वप्न तथा इन्द्रजाल की माया के समान निष्फल भी होता है। माया ऐसा शल्य है जो आत्मा को व्रतधारी नहीं बनने देता है क्योंकि व्रती का निःशल्य होना अनिवार्य है। माया इस लोक में तो अपयश देती ही है, परन्तु परलोक में भी दुर्गति देती है। यदि माया कषाय को नष्ट करनी है तो वह ऋजुता और सरलता के भाव अपनाने से ही नष्ट हो सकती है। मायावी याने कपटी पुरुष सदा ही दूसरों का दास होता है क्योंकि दगाबाज सबके सामने दुगुना नमता है। माया सबसे बड़ा भय भी होती है जो गोपनीयता में पैदा होती है, लोभ में पनपती है, मान में अपना उठाव दिखाती है और क्रोध में बाहर प्रकट होती है। इसके विभिन्न रूप इस प्रकार गिनाये गये हैं—(१) कपट (२) मायाचार (३) प्रतारणा व वंचना (४) दंभ और आडम्बर (५) कुटिलता और जटिलता (६) दुराव तथा छिपाव आदि। इसी प्रकार माया के विविध रूपों को प्रकट करने वाले इसके समानार्थक चौदह नाम अन्यथा भी गिनाये गये हैं : (१) उपधि—किसी को ठगने के लिए प्रवृत्ति करना (२) निवृति—किसी का आदर सत्कार करके फिर उसके साथ माया करना या एक मायाचार छिपाने के लिए दूसरा मायाचार करना (३) वलय —किसी को अपने माया जाल में फंसाने के लिए मीठे-मीठे वचन बोलना (४) गहन—दूसरों को ठगने के लिये अव्यक्त शब्दों का उच्चारण करना या ऐसे गूढ़ तात्पर्य वाले शब्दों का प्रयोग करना व जाल रचना जो दूसरे की समझ में ही नहीं आवे (५) णूम –मायापूर्वक नीचता का आश्रय लेना (६) कल्क –हिंसाकारी उपायों से दूसरों को ठगना (७) कुरूप -निन्दित रीति से मोह पैदा करके ठगने की प्रवृत्ति करना (८) जिह्वाता—कुटिलतापूर्वक ठगने की प्रवृत्ति करना (६) किल्विष –किल्विषी सरीखी प्रवृत्ति २३२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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