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________________ विषय भोगों का यह अनुभव बाह्य रूप से इन्द्रियाँ करती हैं और उनके माध्यम से मन और आत्मा। भोग भोगने की क्रियाओं का वैचारिक प्रभाव मन और आत्मा पर पड़ता है तथा भोग-जन्य सुख अथवा दुःख का अनुभव भी वे ही लेते हैं। जैसे कि किसी का एक बैल किसी दूसरे के खेत में घुस गया और वह फसल चरने व उजाड़ने लगा, इतने में खेत का मालिक आ गया। इस नाजायज चराई के नतीजे में बैल भी डंडे खा सकता है लेकिन हनि का वजन तो मालिक को ही भुगतना पड़ेगा। अगर किसी का बैल इस तरह उजाड़ करने की कई हरकतें करता रहें तो क्या उसका मालिक चेत नहीं जायगा? जरूर चेतेगा और बैल के नाथ डालकर उसे अपने नियंत्रण में रखेगा। किन्त इन्द्रियों का मालिक मन और जीव ऐसी जिम्मेदारी को जल्दी नहीं पकडते हैं। इन्द्रियां अपने विषयों में आसक्त बनकर विकारपर्वक भटकने लगती हैं और सदगणों की फसल लगती हैं, फिर भी मन जल्दी चेतता नहीं—जीव जल्दी जागता नहीं, बल्कि आधिक बार ऐसा होता है कि मन और आत्मा भी इन्द्रियों के साथ हो जाते हैं एवं उन्हीं के नियंत्रण में उजाड़ व बिगाड़ करने लग जाते हैं। बैलों को काबू में करने की बजाय अगर मालिक ही बैलों के पीछे - पीछे चलने लगे और उनके करने के मुताबिक खुद भी करता जाय तो उस मालिक की दुर्दशा को कौन मिटा सकता है ? ___ मैं गंभीरतापूर्वक इस परिप्रेक्ष्य में अपनी इन्द्रियों, अपने ही मन और अपनी ही आत्मा पर एक समीक्षात्मक दृष्टि डालना चाहता हूं। पहली बात तो यह कि मेरा मन और मेरी आत्मा का नियंत्रण कौशल पूर्णतया दक्ष होना चाहिये जिसके कारण इन्द्रियाँ उस डोर से बंधी रहें नाथ लगे बैल की तरह। ऐसा तभी हो सकता है जब आत्मा का ज्ञान और विवेक पूर्ण रूप से जागृत हो। दूसरी बात यह हो सकती है कि आत्मा और मन का इन्द्रियों पर नियंत्रण अति कुशल न हो किन्तु एक बार उनके भटक जाने पर उन्हें यथाशक्य शीघ्रता से पुनः वहां से लाकर आत्मस्थ बना सके। तीसरी बात आत्मा और मन की सुप्तावस्था की होती है कि वे इन्द्रियों के विकारों को रोक पाने में अक्षम बने रहते हैं, यहां तक तो फिर भी ठीक है कि सोये हुओं को जगा दिया जाय तो फिर विकृति रुक जायगी। किन्तु जहाँ पर आत्मा और मन भी इन्द्रियों के भटकाव में भटक जाये और परम आसक्ति भाव से मर्छित बन जाय, तब वह दुरावस्था चिन्तनीय बन जाती है। ___ आत्मा की ऐसी विदशा पर ही मैं समझता हूं कि वीतराग देवों ने चेतावनियाँ दी हैं कि इच्छा और भोग रूप कामनाओं का नाश करना अति कठिन है। काम भोगों की इच्छा रखने वाली आत्मा उनके प्राप्त न होने पर या उनका वियोग होने पर शोक करती है, खिन्न होती है, मर्यादा भंग करती है, पीड़ित होती है तथा परिताप करती है। काम भोग शल्य रूप है, विष रूप हैं और विषधर सर्प के समान है। काम भोगों का सेवन तो दूर रहा, मात्र उनकी अभिलाषा करने से ही आत्मा दुर्गति में जाती है। काम भोगों में आसक्ति रखने वाले प्राणी कर्मों का संचय करते हैं तथा अमित कर्मों से बंध कर संसार में परिभ्रमण करते हैं। विष के समान इन भोगों को खूब भोग लेने पर भी अन्त में कटुक, अनिष्ट तथा दुःखदायी परिणाम भोगने पड़ते हैं। विषयाभिलाषी आत्मा विषय सुखों के प्राप्त न होने से न उनके समीप होता है और न विषयाभिलाषा का त्याग करने के कारण वह उनसे दूर ही होता है। शब्द, रूप, गंधादि भोग भोगने पर आत्मा कर्म मल से लिप्त होती है किन्तु अभोगी आत्मा लिप्त नहीं होती है। भोगी अथवा भोग की लालसा वाला संसार के दुःखों में डूबा रहता है परन्तु अभोगी संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। जैसे कालकूट विष स्वयं पीने वाले को, २२८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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