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________________ अचेतनावस्था बनी रहना (८) उन्मत्तता पागलपन के दौरे उठना (E) प्राणों में सन्देह बार बार मरणवत् स्थिति का बन जाना तथा (१०) मरण—दयनीय दशा में मृत्यु हो जाना। एक कामी पुरुष का इस रूप में आरंभ और अन्त होता है। आरंभ उसे भोगने में बड़ा मधुर महसूस होता है किन्तु ऐसा कटुक अन्त सहते हुए भी उससे सहा नहीं जाता है। अत्यन्त मूर्छा भावों में उसका मरण परम दुःखदायी हो जाता है। यह समझने की आवश्यकता है कि ऐसे घोर दुःख देने वाले भीषण परिणाम युक्त इन पांचों इन्द्रियों के विषय और विकार क्या और किस रूप के होते हैं जो मनुष्य को लुभाकर उसका दुःखद अन्त कर देते हैं। पांच इन्द्रियों का विषय परिमाण भी इस प्रकार बताया गया है—(१) श्रोत्रेन्द्रिय जधन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग से उत्कृष्ट बारह योजन से आये हुए शब्दान्तर और वायु आदि से अप्रतिहत शक्ति वाले शब्द पुद्गलों को विषम करती है। यह इन्द्रिय कान में प्रविष्ठ शब्दों को स्पर्श करती हुई ही जानती है। (२) चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ दूरी पर रहे हुए अव्यवहित रूप को देखती है। यह अप्राप्यकारी है। इसलिये रूप का अस्पर्श करके उसका ज्ञान करती है। (३-५) घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय तथा स्पर्शेन्द्रिय—ये तीनों इन्द्रिया जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कृष्ट नव योजन से प्राप्त अव्यवहित विषयों को स्पर्श करती हुई जानती हैं। इन्द्रियों का यह जो विषय परिमाण है उसे आत्मागुल से जानना चाहिये। इन पांचों इन्द्रियों के काम-गुण होते हैं क्रमशः शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श। ये पांचों काम अर्थात् अभिलाषा उत्त्पन्न करने वाले गुण होते हैं। इन पांचों विषयों को प्रमाद जनित माना गया है। शब्द, रूप आदि पांचों विषयों में आसक्त प्राणी विषाद आदि को प्राप्त होते हैं अतः इन्हें विषय का नाम दिया गया है। शब्द, रूप आदि विषय भोग के समय मधुर होने से तथा परिणाम में अति कटुक होने से विष से उपमित किये जाने के कारण भी विषय कहलाते हैं। इस विषय प्रमाद से व्याकुल चित्त वाला जीव हिताहित के विवेक से शून्य हो जाता है, इसलिये इन इन्द्रियों के माध्यम से अकृत्य का सेवन करता हुआ वह चिर काल तक संसार के दुःखों में परिभ्रमण करता रहता है। पांचों प्रकार के विषयों में आसक्त प्राणियों में क्रमशः हिरण, पतंगा, भंवरा, मछली तथा हाथी के दृष्टान्त दिये जाते हैं, जो अपने इन्द्रिय-विषयों में इतनी गहराई से डूब जाते हैं कि उन्हें अपने प्राणान्त तक का भान नहीं होता। उसी प्रकार पांचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीव भी विषय का उपभोग करते हुए कभी तृप्ति का अनुभव नहीं करता है। विषय भोग में प्रवृत्त रहने से विषयेच्छा शान्त न होकर उसी प्रकार बढ़ती जाती है जिस प्रकार अग्नि में घी डालने से उसकी ज्वालाएं बढ़ती जाती हैं। विषय भोग में अति आसक्ति वाले जीव के दुःख तो इसी जीवन में देखने को मिल जाते हैं और वैसा जीव परलोक में भी नरक एवं तिर्यंच योनियों के महादुःख भोगता है। इसलिये विषय भोगों से निवृत्ति लेने तथा विषयान्ध इन्द्रियों के मोह जाल को तोड़ देने को ही कल्याणकारी कहा गया है। पांचों इन्द्रियों के तेईस विषय तथा दो सौ चालीस विकार माने गये हैं –(अ) श्रोत्रेन्द्रिय के विषय- (१) जीव शब्द, (२) अजीव शब्द तथा (३) मिश्र शब्द । विकार-कुल बारह-तीनों प्रकार के शब्दों की शुभता और अशुभता से छः तथा छः पर राग और छः पर द्वेष होने से बारह । (ब) चक्षुरिन्द्रिय के विषय (१) काला (२) नीला (३) पीला (४) लाल और (५) सफेद । विकार २२६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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