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________________ प्रकाश मेरे सिवाय अन्य कुछ नहीं, मैं ही हूँ। मैं ही ज्योतिर्मय हूँ क्योंकि सम्पूर्ण रूप से ज्योति में विगलित होकर एक दिन मात्र ज्योतिर्मय हो जाने वाला हूँ। _ मैं ज्योतिर्मय हूँ मुझे अपने भीतर जगमगाती हुई ज्योति को प्रकटित करनी ही है और इसलिए समदर्शी भी होना ही है। और समदर्शी होना है तो समभावी बनना है तथा समभावी बनना है तो अपने मन, वचन व शरीर को विषय-कषायों के अशुभ योग व्यापार से बाहर निकालना ही होगा तथा अपने मन, वचन एवं कर्म को समता से आप्लावित बना कर एक रूप करना ही होगा। भौतिक सुखों की कामनाएँ राजा की तरह मानव को भी महात्मा का संसर्ग-बोध मिलेगा जब मिलेगा। लेकिन अभी तो वह स्वयं राजा बना हुआ है और वह सोचता है यह कि भवन मेरा अपना है, कौन इसमें प्रवेश करने का साहस कर सकता है ? मैं उसे सबक सिखा दूंगा। इसकी सम्पत्ति मेरी अपनी है- मैंने अर्जित की है कोई इसे छू कर देखे। यह परिवार, यह पली, ये पुत्र पुत्री मेरे अपने हैं इनके सुख में ही तो मेरा सुख रहा हुआ है। और मेरा यह सुभग शरीर—इसे मैं किसी भी तरह कष्टित नहीं करना चाहता। इसी विचार धारा में वह आगे विचार करता है कि वह सब मेरे अपनों के लिए सुख-सामग्री चाहिये-सुविधा चाहिये। सामान्य सुविधा नहीं, भव्य सुविधा, संसार में उपलब्ध अधिक से अधिक ऊँची सुविधा । इन सुविधाओं के बारे में भी, प्राप्त मेरे लिये नगण्य हो जाती है और प्राप्य का क्षेत्र अति विस्तृत बन जाता है क्योंकि मेरी कामनाएँ अपार है। जो चारों ओर दिखाई देता है, मेरा मन करता है कि यह भी हो. वह भी हो और जो कल्पना लोक में ही घमती हैं. वे सविधाएँ भी मुझे मिलें। बाह्य संसार में जितना भौतिक सुख और वैभव है, वह सब मुझे प्राप्त हो जाय। मेरी इच्छाओं का मेरी कामनाओं का अन्तिम छोर मुझे कहीं भी दिखाई नहीं देता। वह सोचता है कि मुझे धन चाहिये—अपार धन चाहिये। मुझे सत्ता चाहिये—अखंडित सत्ता चाहिये। लोग मुझे उच्च मानें, मेरे वर्चस्व को अपने सिर-माथे स्वीकारें और दिक्-दिगन्त में मेरी यशःकीर्ति की पताका फहरावें। उसे इस संसार के भौतिक सुख कितने चाहिये—इसका उसको खुद को अनुमान नहीं। जो प्राप्त होता जाता है, उसे भूलता रहता है। और प्राप्य के लिये भाग दौड़ करता है। इस भाग दौड़ का कहीं अन्त नहीं है। लाभ बढ़ता है लोभ बढ़ता है और ये लोभ-लाभ बढ़कर मुझे ममत्त्व की मूर्छा में सुलाते रहते हैं। मैं संज्ञाहीन सा बनकर समझ भी नहीं पाता हूँ कि मेरा मन कहाँ-कहाँ घूमता है, वचन कैसा कैसा निकलता है और काया किधर-किधर बहकती है ? ___ इतना ही नहीं, भौतिक सुखों की ये कामनाएँ मन में रात दिन चिन्ता रूपी ज्वालाएँ जलाये रखती हैं। कहाँ से कितना अधिक प्राप्त कर सकूँ—यही धुन सवार रहती है। भौतिक सुखों के संदर्भ में मुझे इस संसार में दो प्रकार के दृश्य देखने को मिलते हैं। एक तो वह वर्ग है कुछ लोगों का, जिनके पास अतुल वैभव, अबाध सत्ता और विपुल भोग-सामग्री विद्यमान है, फिर भी उन लोगों की तृष्णा थमी नहीं है। वे अपनी सत्ता और सम्पत्ति की शक्तियों के जोर से अधिक से अधिक अर्जित करते चले जाना चाहते हैं इस हकीकत का बिना खयाल किये कि उनकी वह सक्रिय तृष्णा कितने लोगों के जीवन को भारी आघात पहुँचा रही है। कुछ लोगों का यह वर्ग भौतिकता में मदमस्त बना हुआ है। कई लोगों का दूसरा ऐसा वर्ग है जो आर्थिक रूप से अति अभावग्रस्त है—जीवन निर्वाह की मूल आवश्यकताएँ तक इन लोगों को प्राप्त नहीं है। एक तो वे अपने ही अभाव से दुःखी हैं तो २२३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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