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________________ (१०) मैं ज्ञान आदि का यथायोग्य विनय करूं। (११) मैं भावपूर्वक शुद्ध आवश्यक प्रतिक्रमण आदि कर्तव्यों का पालन करूं । (१२) मैं निरतिचार शील और व्रत अर्थात् मूल गुण एवं उत्तर गुणों का पालन करूं। (१३) मैं सदा संवेग भावना एवं शुभ ध्यान का सेवन करता रहूं। (१४) मैं यथाशक्ति बाह्य एवं आभ्यंतर तपों की आराधना करता रहूं। (१५) मैं सुपात्र को साधुजनोचित प्रासुक अशन आदि का दान दूं। (१६) मैं आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, नवदीक्षित, सहधार्मिक, कुल, गण, संघ की भक्तिभावपूर्वक वैयावृत्त्य करूं जो इस प्रकार हो सकती है कि मैं आहार लाकर दूं, पानी लाकर दूं, आसन लाकर दूं, उपकरण की प्रतिलेखना करूं, पैर पूंजू, वस्त्र दूं, औषधि दूं, मार्ग में सहायता दूं, दुष्ट, चोर आदि से रक्षा करूं, उपाश्रय में प्रवेश करते हुए म्लान या वृद्ध साधु की लकड़ी लूं, तथा उनके उच्चार, प्रश्रवण एवं श्लेष्म के लिये पात्र दूं। (१७) मैं गुरु आदि का कार्य सम्पादन करूं तथा उनके मन को प्रसन्न रखू । (१८) मैं नवीन ज्ञान का निरन्तर अभ्यास करता रहूं। (१६) मैं श्रुत की भक्ति और बहुमान करूं। (२०) मैं देशना द्वारा प्रवचन की प्रभावना करूं । ये बीस बोल (बातें) हैं जिनकी मैं जितनी गहराई से साधना कर सकू, करूं तो मैं आशा, रख सकता हूँ कि इस साधना के फलस्वरूप मैं भी कभी तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकूँगा। यह तीर्थंकर पद 'एगे आया' की दिव्य शोभा का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। मेरा लक्ष्य तो सर्वकर्म मुक्त सिद्धावस्था पाना चौथा सूत्र और मेरा संकल्प __ मैं सुज्ञ हूँ इसलिए अपने और सबके कल्याण का सुमार्ग जानता हूँ और मैं संवेदनशील हूँ अतः दयामय हूँ- किसी के दुःख को देख नहीं सकता तो भला अपनी ही आत्मा के दुःखों को क्या मैं देख सकूँगा? और जब मैं उन्हें देखूगा तो मुझे लगेगा कि मेरे अपने मानस वचन और कर्म की तुच्छता से बढ़कर मेरे लिये और क्या दुःख हो सकता है? मेरी सुज्ञता और मेरी संवेदनशीलता मुझे अनुप्राणित करती है कि मैं अपनी जड़ग्रस्तता के स्वरूप और उसके कारणों की खोज करूं। यह खोज मुझे बताती है कि यह सारी जड़ग्रस्तता मुझे अष्ट कर्मों से बांधती है तो फिर ये बंधे हुए अष्ट कर्म मेरे भीतर अज्ञान एवं अविवेक की मौजूदगी से मेरी जड़ग्रस्तता को बढ़ाते ही रहते हैं तथा मेरी वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों को अधिकाधिक तुच्छ व हीन बनाते रहते हैं। यह तुच्छता और हीनमन्यता ही मेरी सबसे बड़ी आन्तरिक दुर्बलता बन जाती है जिसकी वजह से मेरी दृष्टि विकृत बनकर अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को ही नहीं देख पाती है, मेरा ज्ञान मेरे दमित पुरुषार्थ को जगा नहीं पाता है एवं मेरा उपयोग अपने ही विकारग्रस्त स्वरूप की गहरी परतों को भेद नहीं पाता है। इसलिये मैं संकल्प लेता हूँ कि मैं मेरे मानस, मेरी वाणी तथा मेरे कर्म की तुच्छता को मूल से मिटा देने का कठिन पुरुषार्थ करूंगा और यह पुरुषार्थ होगा शुभ कर्मों के २१७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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