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________________ . प्रबल पुरुषार्थ की भावना ही मुझे और सभी प्राणियों को परस्पर एक समझने तथा एकरूप बनने की निष्ठा जगाती है। यही एकात्मता शिक्षा देती है कि परम धर्म रूप अहिंसा को अपने जीवन की समग्र वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों में गहराई से रमा लो—इतनी गहराई से कि मनुष्य, पशु, पक्षी आदि स्थूल प्राणी ही उसकी अहिंसा के रक्षा क्षेत्र में न हों बल्कि पृथ्वी, पानी, पवन, अग्नि, वनस्पति आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव भी अहिंसात्मक आचरण से सुरक्षित बन जाय। मैं इसीलिये संयम में सुस्थिर होकर सफल साधु जीवन की आकांक्षा रखता हूँ कि जिस जीवन में स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों की हिंसा न करने न करवाने और न करते हुए को अनुमोदन देने तथा सभी जीवों को अभयदान देने का महाव्रत लिया हुआ होता है। सभी छः काया के जीवों का संरक्षण ही 'एगे आया' का विराट् रूप है- उसकी दिव्य शोभा है। यह विराट रूप और दिव्य शोभा मेरे अन्तर्मन में रम कर एक रूप हो जाय तभी मैं अपना समस्त जीवन लोक कल्याण में विसर्जित कर सकता हूँ। यह विसर्जन ही अहिंसा का सर्वोत्कृष्ट आचरण कहलायेगा। यह भी मैं मानता हूँ कि जो अहिंसा का सर्वोत्कृष्ट आचरण बना लेता है, वही सत्य का साक्षात्कार भी कर सकता है। मैं मानता हूँ कि आत्मविकास की इस महायात्रा में यदि पूर्ण अहिंसामय आचरण परिपुष्ट बन जाता है तो पूर्ण सत्य का प्रकाश भी उस जीवन में खिल उठता है। सभी सिद्धान्तों को एक शब्द में यदि Dथना चाहें तो वह है अहिंसा । अहिंसा अपनी आत्मा के प्रति कि वह कहीं भी हिंसक न हो और संरक्षक बनी रहे तथा अहिंसा संसार की समस्त आत्माओं के प्रति जो अहिंसा का रसास्वादन करके निर्भय बनें और सत्य शोधक बनें। मैं देखता हूँ कि इसीलिए अहिंसा सम्पूर्ण धार्मिकता की सिरमौर है—परम धर्म है। अहिंसा का ही विधि रूप है दया, अनुकम्पा और करुणा। यही कारण है कि मेरे सुदेवों (वीतराग देवों) ने और सुगुरुओं (निग्रंथ मुनि) ने दयामय धर्म को ही 'सुधर्म' कहा है। कौन प्रबुद्ध और सहृदय ऐसा व्यक्ति होगा, जो ऐसे सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में अपनी सम्पूर्ण आस्था को प्रतिष्ठित करना नहीं चाहेगा? ये तीनों तत्त्व जहाँ आस्था के मूल बन जाते हैं, वहाँ ‘एगे आया' की निष्ठा भी सुदृढ़ बन जाती है और व्यक्ति स्व-पर कल्याण को अपना चरम लक्ष्य मानकर तदनुकूल पुरुषार्थमय साधना में संलग्न हो जाता है। 'एगे आया' की इस दिव्य शोभा को मैं मेरे भीतर अभिव्यक्त करने के लिए क्या पुरुषार्थ करूं-यह प्रश्न मेरे हृदय में उठता है। मेरी इस जिज्ञासा का समाधान आप्त वचनों में मिल जाता है कि मैं कुछ ऐसी साधना करूँ कि वीतराग, अरिहंत और तीर्थंकर बन सकूँ। तीर्थंकर वे जो लोक-कल्याण के सर्व प्राणीहितकारी कार्य करते हैं तथा सर्वात्माओं के उत्थानकारी उपदेश प्रदान करके चार तीर्थों की स्थापना करते हैं। आत्मा के तरण-स्थल को तीर्थ कहते हैं और तीर्थों की छाया में प्रत्येक आत्मा को ऊर्ध्वगामिता प्राप्त होती है। ये तीर्थ हैं साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका - जो व्यक्तिपरक नहीं, गुणपरक तीर्थ होते हैं। अहिंसा आदि की साधना में जो अपने आपको सर्वात्मना समर्पित कर देती है। वही आत्मा साधना के उत्कर्ष के बल पर अनंतज्ञानादि की अभिव्यक्ति पाती हुई भव्य आत्माओं के लिए तीर्थ रूप तारक बन जाती है। गुणमय चतुर्विध तीर्थों की स्थापना करने से ही ये महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर इसी कारण महानतम माने जाते हैं कि वे अरिहन्त (करमनाशक) बन कर वीतराग (राग द्वेष नाशक) तो होते ही हैं किन्तु लोक २१५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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