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________________ तुच्छता उसके मन, उसकी वाणी तथा उसके कर्म से बराबर फूटती रहती है। वह दूसरों को हीन इसलिये समझने लग जाता है कि वह स्वयं हीनमन्यता से ग्रस्त हो जाता है। ऐसी तुच्छता और हीनता उसकी वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में प्रवेश पाकर स्वार्थ, ममत्व तथा प्रमाद को उकसाती है और उसे आत्म-विमुख बना देती है। उस समय उसका पुरुषार्थ भी शिथिल और मलिन बन जाता है। इस रूप में तुच्छता की वृत्ति तथा पुरुषार्थ वृत्ति परस्पर विरोधी होती है। तुच्छता बनी रहेगी तो आत्म पुरुषार्थ जागृत नहीं बनेगा और जब आत्म पुरुषार्थ जाग जायेगा तो फिर तुच्छता ठहर नहीं सकेगी। उसके स्थान पर उदारता और उच्चता का अवश्य ही विस्तार होने लगेगा। इस कारण मन, वाणी तथा कर्म की तुच्छता को मिटाना है तो अपने आत्म पुरुषार्थ को जगाना ही होगा। ऐसा जागृत बना आत्म पुरुषार्थ सबसे पहले आत्म स्वरूप के साथ बंधे हुए कर्मों के क्षयोपशम के सत्प्रयास में ही जुटेगा। ___ मैं तुच्छता एवं हीनता के ओछेपन में भटकता हुआ अपने मन, वचन तथा कर्म की नीच क्रियाओं को भुगत चुका हूं क्योंकि वे क्रियाएं अपने साथियों को छेदने, भेदने और परिताप उपजाने वाली ही अधिक होती थी। उस समय की अपनी मनोदशा को आज जब याद करता हूं तो महसूस होता है कि मैं अपनी सामान्य कार्य स्थिति से भी कितना नीचे गिर गया था और व्यर्थ में ही नये-नये कर्मों का बंध कर लेता था। अब उन्हीं कर्म-बंधों को तोड़ने के लिये मैं कठिन पुरुषार्थ करना चाहता हूं। विचारों की इस अवस्था में मेरे मन में एक शंका पैदा होती है कि जब पूर्वकृत कर्मानुसार ही जीव को सुख-दुःख होते हैं तथा किये हुए कर्मों को भोगे बिना आत्मा का छुटकारा भी संभव नहीं है तो सुख प्राप्ति तथा दुःख निवृत्ति के लिये मेरे द्वारा प्रयल किया जाना क्या व्यर्थ नहीं होगा? भाग्य-फल को रोका नहीं जा सकता तो पुरुषार्थ की आवश्यकता ही कहां रह जाती है? क्या इस धारणा को लेकर कोई भी पुरुषार्थ विमुख नहीं होगा? इन प्रश्नो के साथ ही मेरा चिन्तन चलता है कि होना है सो होना है तथा होनी को टाल नहीं सकते हैं तो किसी भी प्रकार के प्रयत्न या पुरुषार्थ के लिये कहां स्थान रह जाता है ? किन्तु आप्त वचन मेरी शंका का सम्यक् समाधान करते हैं और मैं पुरुषार्थ की प्रक्रिया को भली-भांति जान और मान लेता हूं। यह सही है कि अच्छा या बुरा कोई भी कर्म बिना फल भोग दिये नष्ट नहीं होता। जो पत्थर हाथ से छूट गया है उसको वापिस नहीं लौटाया जा सकता है। परन्तु जिस प्रकार सामने से वेग-पूर्वक आता हुआ पत्थर पहले वाले पत्थर से टकराकर उसके वेग को रोक देता है या उस की दिशा को बदल देता है, ठीक इसी प्रकार किये हुए शुभाशुभ कर्म आत्म परिणामों की तीव्रता या मन्दता के अनुपात से न्यून या अधिक शक्ति वाले हो जाते हैं, दूसरे रूप में बदल जाते हैं और कभी-कभी निष्फल भी हो जाते हैं। कर्म की एक निकाचित अवस्था ही ऐसी होती है, जिस में कर्मानुसार अवश्य फल भोगना पड़ता है। शेष अवस्थाएँ आत्म-परिणामानुसार परिवर्तनशील होती हैं। अभिप्राय यह है कि पुरुषार्थ परिवर्तन ला सकता है तथा कर्म की प्रकृति, स्थिति और अनुभाग को बदल सकता है। पुरुषार्थ के प्रभाव से कर्मों की सारी अवस्थाएं परिवर्तित हो सकती है एक मात्र निकाचित अवस्था ही अप्रभावित रहती है। आत्म पुरुषार्थ के बल पर एक कर्म को दूसरे कर्म में बदला जा सकता है। लम्बी स्थिति वाले कर्म छोटी अवधि की स्थिति में तथा तीव्र रस वाले कर्म मन्दरस में परिणत किये जा सकते हैं। कई कर्मों का वेदन विपाक से न होकर प्रदेशों से ही हो जाता है। अतः कर्मवाद का सिद्धान्त इस आत्मा २०६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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