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________________ शरीर बंधन तथा (य) कार्मण शरीर बंधन । पहले के तीन शरीरों में उत्त्पत्ति के समय सर्वबंध तथा बाद में देश बंध होता है। तैजस और कार्मण शरीर की नवीन उत्पत्ति न होने से उनमें सदा देशबंध ही होता है। (६) संघात–जो नाम कर्म गृहीत और ग्रह्यमाण शरीर पुद्गलों को परस्पर सन्निहित कर व्यवस्था से स्थापित कर देता है, वह संघात नाम कर्म है। यह भी पांच शरीरों के रूप से पांच भेद वाला होता है। (७) संहनन—शरीर की हड्डियों की रचना विशेष को संहनन कहते हैं। यह रचना छः प्रकार की होती है—(अ) वज्र ऋषभ नाराच संहनन—जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कट बंध द्वारा जुड़ी हुई दो हड़ियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो और जिसमें इन तीनों हड्डियों को भेदने वाली वज्र नामक हड्डी की कील हो। (ब) ऋषभ नाराच संहनन–उपरोक्त प्रकार में जब वज्र नामक हड्डी की कील न हो। (स) नाराच संहनन—पहले प्रकार में जब कील और वेष्टन पट्ट भी न हो। (द) अर्ध नाराच संहनन—जब एक ओर मर्कट बंध हो और दूसरी ओर कील हो। (य) कीलिका संहनन—जिसमें हड्डियां केवल कील से जुड़ी हुई हो तथा (फ) सेवाञक संहनन-जिसमें हड्डियां, पर्यन्त भाग में एक दूसरे को स्पर्श करती हुई रहती है और सदा चिकने पदार्थ की अपेक्षा रखती हैं। () संस्थान–शरीर के आकार को संस्थान कहते हैं। इसके भी छ: भेद हैं (अ) समचतुरस्र संस्थान, पालथी मार कर बैठने पर आकार चार समकोण के समान हो। (ब) न्यग्रोध परिमंडल संस्थान –वट वृक्ष की तरह ऊपर से विस्तृत तथा नीचे से संकुचित आकार का हो। (स) सादि संस्थान-नाभि से नीचे का भाग पूर्ण तथा ऊपर का भाग हीन हो। (द) कुब्ज संस्थान-हाथ, पैर, गर्दन आदि ठीक हो लेकिन पेट-पीठ टेढ़े हों। (य) वामन संस्थान—पेट-पीठ के अवयव ठीक हो लंकिन हाथ पैर आदि छोटे हों। तथा (फ) हुंडक संस्थान–समस्त अव्यय बेढ़ब हों। (E) वर्ण-मूल वर्ण पांच काला, नीला, लाल, पीला, सफेद ही होते हैं, बाकी सब इनके संयोग से बनते हैं। (१०) गंध-जिस कर्म के उदय से शरीर की अच्छी या बुरी गंध हो। यह दो प्रकार की होती है-सुरभिगंध तथा दुरभिगंध । (११) रस-रस भी मूल रूप से पांच प्रकार के होते हैं तीखा, कडुआ, कषैला, खट्टा तथा मीठा । शेष रस इन्हीं के संयोग से बनते हैं। (१२) स्पर्श—जिस कर्म के उदय से शरीर में कोमल रूक्ष आदि स्पर्श प्राप्त हो। स्पर्श आठ प्रकार के हैं—गुरु, लघु, मृदु, कर्कश, शीत, ऊष्ण, स्निग्ध और रूक्ष । (१३) आनुपूर्वी जिस कर्म के उदय से जीव विग्रहगति से अपने उत्त्पत्ति स्थान पर पहुंचता है। यह नाम कर्म नाथ के समान होता है जिससे इधर उधर भटकते हुए बैल को इष्ट स्थान पर ले जाया जाता है। गति के नाम में ही इसके चार भेद होते हैं। (१४) विहायोगति-जिस कर्म के उदय से जीव की गति (चाल) हाथी या बैल के समान शुभ अथवा ऊंट या गधे के समान अशुभ होती है। इसके दो भेद हैं -शुभ विहायोगति एवं अशुभ विहायोगति। १६८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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