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________________ चुका हूं वही लक्ष्य त्रिकाल स्थायी एवं अबाधित है मैं उस ध्रुवयुक्त उत्पाद व्यय के साथ परिणामि चैतन्य देव के ज्ञानान्द में रमण करने के लिए अत्यंत उत्सुक हूं। सभी विकारी उपाधियों से निर्लिप्त रहता हुआ अतीन्द्रिय ज्ञान को वरने के लिए छटपटा रहा हूं वह अतीन्द्रिय ज्ञान एवं अतीन्द्रिय गुण मय चिंतामणी रनों का अखूट खजाना मेरी अंतरात्मा श्रद्धा रूप से चमक उठा है! मैं निश्चय कर चुका हूं कि चारित्र मोह के अनादि कालीन योद्धाओं को परास्त करने में सक्षम बनूं। उस सक्षमता में मेरा सत्पुरुषार्थ निरंतर चालू रहे, साध्य एवं साधन की समन्वयात्मक उपादान आदि की अवस्था में साध्य को कार्य रूप में परिणत करके ही रहूंगा। साध्य और साधन में जरा भी मोच नहीं आने दूंगा यह मेरा साधनागत आंतरिक सूत्र है। यह जीवन के गुणों के साथ संबद्ध रहा है, रह रहा है, और रहेगा। इसमें संशय को अवकाश ही नहीं है क्योंकि मेरा जीवन आर्य क्षेत्र कुल आदि के साथ आर्य गुणों के साथ सम्पन्न हो चुका है। इसीलिए मेरी चित परिणति को आंतरिक अध्यवसाथ को कर्म जनित सभी रंगों से रहित बनाकर रहूंगा। यह मेरी दृढ़ धारणा ही समर्थ सहकारी कारणों के साथ संयुक्त है। इस धारणा को तोड़ने का त्रिकाल में भी प्रसंग नहीं आ सकता। परिषह उपसर्ग इस धारणा को विमोचित करने के लिए उपस्थित हो सकते हैं किंतु उनको भी मैं यथा तथ्य रूप से समीक्षण चक्षु से ही अवलोकित करूंगा। पूर्व में बहिर् आत्मा से संबन्धित जो उपकरण, परिवार आदि की उपाधियां आमने-सामने तैर रही हैं। किंतु मैं उनको भी आसक्ति के रंग से अनुरंजित होकर नहीं देखूगा। उस आसक्ति के रंग को अनासक्ति में परिणत करने वाला समत्व गुण समीक्षण दृष्टि से उपलब्ध हो चुका है। अतएव ममत्व की जंजीरें समत्व की छेनी से ही परिछेदित की जा सकती है। यह परिछेदन की शक्ति मेरे में रही हुई है। मैं शारीरिक, मानसिक आदि साधनों की शक्ति के अनुपात से सत्पुरुषार्थ पराक्रम चालू करने के लिए कटि-बद्ध हो चुका हूं। उसमें कोई कसर नहीं रहने दूंगा। प्राप्त सांसारिक वैभव परित्यक्त करने का आंतरिक परिणाम परिपूर्ण रूप से नहीं जगेगा तब तक कमल वत रहता हुआ यथायोग्य कर्तव्यों का पालन करूंगा। लेकिन सभी कर्तव्यों में लक्ष्यानुरूप उपयोग धारा रखूगा। समय आने पर उस परिवार आदि परिधि का भी अतिक्रमण कर वसुधैव कुटुम्बकं की वृत्ति का परिपूर्ण जागरण करूंगा। शुभ योग की सड़क पर लक्ष्य की ओर चरण बढ़ाता हुआ अप्रमतत्ता की जागृति में अपने आपको समर्पित करता हुआ मोह कर्म के यौद्धाओं का शमन, संक्षय आदि वृत्तियों में अपने आपको सक्षम बनाऊँगा, संक्षय की अंतिम रणभेरी के साथ ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अंतराय के सहयोगी. यौद्धाओं को परास्त कर साधन और साध्य की परिधि को पार करूंगा। रत्नत्रय रूप साधनों को चरम सीमा में पहुंचाता हुआ क्षायिक सम्यक्त्व केवल ज्ञान और क्षायिक चारित्र की स्व स्वभाव का त्रिपुटी को आपेक्षिक अभेद रूप में संलोकित करूंगा किंतु शरीर परिधि की सीमा को भी अतिक्रमण कर असंख्य प्रदेशों को सदा-सदा के लिए प्रौव्य, एवं अचलत्व को परिणति दूंगा। अंततोगत्वा साकार उपयोग के साथ सिद्धत्व स्वरूप को सदा सदा के लिए वरूंगा। यह सिद्धि इस जन्म में नहीं तो अन्य जन्म में अवश्य पाऊंगा। आयुष्य के बन्धन मैं जानता हूं कि मेरी तरह प्रत्येक शरीरधारी संसारी जीव का अपनी-अपनी गति में उसका निश्चित आयुष्य होता है, जो आयु कर्म के अनुसार प्राप्त होता है। आयु की इस निश्चित अवधि १६४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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