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________________ आवरण | प्रत्येक कर्म का अनुभाव स्व और पर की अपेक्षा से होता है। गति, स्थिति और भव पाकर कर्मोदय से जो फल भोग होता है, वह स्वतः अनुभाव है । उदीरणा आदि शक्ति विशेष के माध्यम से पुदगल और पुदगल परिणाम की अपेक्षा जो फल भोग होता है, उसे परतः अनुभाव समझना चाहिये । स्वतः अनुभाव में कोई कर्म, गति-विशेष को पाकर ही तीव्र फल देता है, जैसे कुछ असाता वेदनीय कर्म नरक गति में तीव्रतम फल देता है। तीव्र अनुभाग के उदय के साथ स्थिति से भी तीव्र फल मिलता है जैसा कि मिथ्यात्व की स्थिति में । भव विशेष पाकर भी कभी-कभी कर्म का तीव्र फल होता है। इस प्रकार परतः अनुभाव में कर्म किसी पुद्गल का निमित्त पाकर फल देता है जैसे किसी के लकड़ी या पत्थर फेंकने पर चोट पहुंचती है। इसी प्रकार मदिरा पान से ज्ञानावरणीय का भी उदय होता है। अतः इस अनुभाव को दस संक्षिप्त करके केवल दो भेदों में भी देखा जा सकता है — स्वतः निरपेक्ष तथा परतः सापेक्ष । पहली स्थिति में बाह्य निमित्त की अपेक्षा किये बिना ही स्वाभाविक ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव ज्ञातव्य वस्तु को नहीं जानता है, जानने की इच्छा रखते हुए भी नहीं जान पाता है और एक बार जानकर भूल जाने से दूसरी बार नहीं जानता है। यहां तक कि वह आच्छादित ज्ञान शक्ति वाला हो जाता है, जबकि दूसरी स्थिति में पुद्गल, पुद्गल परिणाम की अपेक्षा ज्ञान शक्ति का आच्छादन होता है तथा जीव ज्ञातव्य वस्तु का ज्ञान नहीं कर पाता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी को चोट पहुंचाने के लिये पत्थर, ढेला या शस्त्र, फैंकता है तो उनकी चोट से उसके ज्ञान में लगने वाले उपयोग बाधा उत्पन्न होती है। क्योंकि उसका उपयोग ज्ञान में न लग कर चोट में लग जाता है। यह पुद्गल की अपेक्षा हुई। फिर पुद्गल परिणाम की अपेक्षा यह होगी कि एक व्यक्ति भोजन करता है, उसका परिणमन ठीक तरह से न होने के कारण वह अजीर्णवश दुःखानुभव करता है, और उस दुःख की अधिकता से वस्तु विशेष को जानने की ज्ञान शक्ति पर बुरा असर पड़ता है। स्वाभाविक पुद्गल परिणाम की अपेक्षा से शीत, ऊष्ण आदि के कारण जीव की इन्द्रियों में क्षति पहुंचने से इन्द्रियजन्य ज्ञान में बाधा पहुंचती है। मैं ज्ञानावरणीय कर्म के इस स्वरूप विश्लेषण से यह शिक्षा लेना चाहता हूं कि ज्ञान पर आवरण डालने वाले कर्मों के जो कारण हैं, उनसे दूर रहूं और बचूं। दूसरे, जब मेरे पूर्व कृत ज्ञानावरणीय कर्म का उदय काल आवे तथा उस फल भोग के कारण मेरे ज्ञानार्जन में बाधाएं खड़ी हो, तब मैं उन बाधाओं को शान्तिपूर्वक सहूं और अपने प्रयासों की निरन्तरता को बनाये रखूं । साथ ही ज्ञान के प्रसाद एवं ज्ञानियों की सेवा में मैं अपने आपको निष्ठापूर्वक लगाऊं ताकि मेरे ज्ञान के आवरण कर्मो का क्षयोपशम और क्षय भी होता चले। इस कर्म के बंधनों को तोड़ने में मुझे सफलता इसी आधार पर मिल सकती है कि मैं हर समय समभाव पूर्वक सावधान, सतर्क और जागृत रहूं जिससे मेरी वृत्तियां और प्रवृतियां ज्ञान के क्षेत्र में बाधक न रह कर सहायक बन कर प्रवृत्ति करे । आवृत्त दर्शन-शक्ति वस्तु के सामान्य स्वरूप को जानने वाला ज्ञान, दर्शन कहलाता है। यह ज्ञान, दर्शनावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से अभिव्यक्त होता है । और इस सामान्य ज्ञान को आवृत्त करने वाला कर्म दशानिवरणीय कर्म कहलाता है। दर्शन चार प्रकार का बताया गया है— (१) चक्षु दर्शन, (२) अचक्षु दर्शन, (३) अवधि दर्शन तथा (४) केवल दर्शन । इन प्रकारों के साथ पांच प्रकार की जागरणहीन अवस्थाओं को मिलाने से दर्शनावरणीय कर्म के नव प्रकार कहे गये हैं: १८८ -
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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