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________________ परिणतियों से नये-नये कर्मों का बंध भी होता जाता है। इस प्रकार संसार का क्रम चलता रहता है। किन्तु कर्मों से छुटकारा भी होता है। मुक्ति कर्मों से पूरे छुटकारे का ही दूसरा नाम है। जैसे सोना और मिट्टी जमीन के भीतर एकमेक बने हुए होते हैं किन्तु उन्हें बाहर निकाल कर तापादि प्रयोग द्वारा पूरी तरह से विलग कर दिया जाता है। सोना अपने पूर्ण शुद्ध रूप में पृथक् हो जाता है। उसी प्रकार धर्माराधना से आत्मा कर्म- मल को दूर कर देती है और अपने ज्ञानादि मय शुद्ध स्वरूप को प्रकट कर लेती है। ये कर्म आठ प्रकार के बताये गये हैं- ( १ ) ज्ञानावरणीय कर्म-ज्ञान पर आवरण डाल देने वाले, (२) दर्शनावरणीय कर्म-दर्शन (आस्था) पर आवरण डाल देने वाले (३) वेदनीय कर्म - सुख या दुःख पूर्ण वेदना का अनुभव देने वाले, (४) मोहनीय कर्म – परिग्रह रूप जड़ग्रस्तता से जकड़ देने वाले, (५) आयु कर्म – आयुबंध कराने वाले, (६) नाम कर्म - गति आदि पर्यायों का अनुभव देने वाले, (७) गौत्र कर्म – उच्च व नीच शब्दों से सम्बोधित कराने वाले तथा (८) अन्तराय कर्म - विभिन्न प्रकार की प्राप्तियों में बाधा डालने वाले । ये अष्ट कर्म आत्म-गुणों पर अष्ट आवरण के समान है अतः इन आवरणों को जब तक हटाने का प्रयास प्रारंभ न करें, तब तक उन सम्बन्धित गुणों के प्रकट होने का अवसर नहीं आता है । जैसे ज्ञान का आवरण रूप कर्म जिस रूप हटता जायगा, उसी रूप में आत्मा का ज्ञान गुण प्रकाशित होता जायगा । मेघाछन्न आकाश के समान मानिये कि बादलों का घनत्व जिस रूप में घटेगा, उसी रूप सूर्य की आभा प्रकट होगी। सम्पूर्ण आवरण के हट जाने पर जिस प्रकार सूर्य अपनी सम्पूर्ण आभा से प्रकाशित हो जाता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण आवरणों को हटा देने के बाद संसार में बद्ध यह आत्मा मुक्त होकर बुद्ध तथा सिद्ध बन जाती हैं । इन आठों कर्मों की प्रवृत्तियों, बंध कारणों तथा क्षय उपायों पर विचार आवश्यक है। जिससे मेरी आत्मा कर्म सिद्धान्त की समूची प्रक्रिया को भली-भांति समझ सके तथा उन उपायों पर चल सकें जिनके द्वारा कर्मों का उपशय क्षय करते हुए अनावृत्त स्वरूप प्राप्त किया जा सकता है। ज्ञान शक्ति के आवरण मेरी विकास की महायात्रा में अपनी आत्मा का जो मार्गदर्शक गुण है, वह है ज्ञान गुण । सम्यक् ज्ञान के प्रकाश में ही इस महायात्रा का समारंभ, संचालन तथा समापन संभव हो सकता है। मेरे भीतर ऐसे ज्ञान का प्रकाश अल्प क्यों हैं ? इसलिये कि ज्ञान पर आवरण डालने वाले कर्मों को मैंने बांध रखा है जिन्हें ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। मैं ज्ञान शक्ति के इस आवरण को मन्द कैसे बनाऊं और धीरे-धीरे समाप्त कैसे करूं—इसके लिये मैं इस कर्म का पूरा स्वरूप जानना चाहता हूँ । मेरा अध्ययन और अनुभव बताता है कि वस्तु के विशेष अवबोध को ज्ञान कहते हैं तथा ज्ञानावरणीय कर्म इस अवबोध-शक्ति को आच्छादित कर देता है। जिस प्रकार आंखों पर पट्टी बांध देने से वस्तुओं को देखने में बाधा पड़ती है, उसी तरह इस कर्म के दुष्प्रभाव से आत्मा को सम्यक् एवं यथार्थ पदार्थ ज्ञान में बाधा पड़ती है । मेरा यह पक्का अनुभव है कि ज्ञानावरणीय कर्म का कैसा भी गहरा आच्छादन हो जाय तब भी आत्मा सर्वथा ज्ञान शून्य कभी भी नहीं होती है क्योंकि ज्ञान और उपयोग उसका मूल लक्षण है। ज्ञान का यह शाश्वत सद्भाव ही उसे पुनः पुनः जागृत बनाता १८६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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