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________________ मेरी वाणी तुच्छता के चिह्न रूप होते हैं। मेरे वचनों का ऐसा विद्रूप भी कई बार प्रकट होता है— (१) आलाप —थोड़ा पर टेढ़ा बोलना (२) अनालाप - दुष्ट भाषण करना (३) उल्लापव्यंगपूर्वक बोलना, (४) अनुल्लाप - व्यंग के साथ दुष्टतापूर्वक बोलना, (५) संलाप - गुप्त वार्तालाप करना, (६) प्रलाप – निरर्थक बकवास करना, (७) विप्रलाप - निष्प्रयोजन भाषण करना । मुझे लगता है कि मेरी वाणी की तुच्छता इन सभी रूपों में सीमा पार कर रही है। मेरे मन और मेरी वाणी की तुच्छता भला मेरे कार्यों की तुच्छता को क्यों नहीं भड़कायगी ? मेरे कार्यों की तुच्छता भी दयनीय बनी हुई है। वह तुच्छता शरीर की असावधानी से अशुभ व्यापारपूर्ण इन कार्यों में प्रकट होती है – (१) असावधानी से जाना, (२) असावधानी से ठहरना, (३) असावधानी से बैठना (४) असावधानी से लेटना, (५) असावधानी से उल्लंघन करना, (६) असावधानी से इधर-उधर बार-बार उल्लंघन करना तथा (७) असावधानी से सभी इन्द्रियों व योगों की प्रवृत्ति करना । इस प्रकार मेरी शरीर की विषय, कषाय एवं प्रमादपूर्ण क्रियाओं से निरन्तर कर्म बंध होता रहता है। दुष्ट व्यापार विशेष रूप तथा कर्म बंध के कारण रूप मेरी ऐसी क्रियाएं पांच प्रकार की होती है— (१) कायिकी – काया के दुष्ट व्यापार से होने वाली क्रिया, (२) आधिकरणिकी - जिस दुष्वृत्ति विशेष अथवा बाह्य खड्ग आदि शस्त्र से आत्मा का पतन होना है, उसे अधिकरण कहते हैं, अतः ऐसे अधिकरण से होने वाली क्रिया, (३) प्राद्वेषिकी - जीव के मत्सर भाव रूप अकुशल परिणाम रूप प्रद्वेष से होने वाली क्रिया, (४) परितापनिकी – ताड़नादि से दुःखित करने वाली परिताप आदि की क्रिया, (५) प्राणातातिपातिकी क्रिया - इन्द्रियादि प्राणों को अतिपात पहुँचाने वाली क्रिया । अन्य प्रकार से इन्हीं क्रियाओं के पांच भेद इस रूप में भी होते हैं । (१) आरंभिकी छः काया रूप जीव की हिंसा से लगने वाली क्रिया, (२) पारिग्रहिकी— मूर्च्छा - ममत्त्व से लगने वाली क्रिया, (३) माया प्रत्यया— कपटपूर्वक दूसरों को ठगने से लगने वाली क्रिया, (४) अप्रत्याख्यानिकी - अव्रत याने थोड़ी-सी भी विरति के परिणाम न होने रूप क्रिया तथा (५) मिथ्यादर्शन प्रत्यया – मिथ्यात्व से लगने वाली क्रिया । अन्य अपेक्षा से क्रियाओं के पांच प्रकार इस रूप में भी होते हैं। – (१) प्रेम प्रत्यया - माया और लोभ से उपजे राग भाव के कारण लगने वाली क्रिया, (२) द्वेष प्रत्यया-क्रोध और मान से उपजे द्वेष भाव के कारण लगने वाली क्रिया, (३) प्रायोगिकी क्रिया - आर्तध्यान व रौद्रध्यान जनित पापजनक काय व्यापार से लगने वाली क्रिया, (४) सामुदानिकी क्रिया - समग्र आठ कर्मों को ग्रहण करने से अथवा अनेक जीवों को एक साथ एक-सी पाप क्रिया से लगने वाली, तथा (५) ईर्यापथिकी क्रिया – उपशान्त मोह, क्षीण मोह और सयोगी केवली – इन तीन गुणस्थानों में रहे हुए अप्रमत्त साधु के केवल योग कारण से साता वेदनीय कर्म रूप बंधने वाली क्रिया । मेरा मानस, मेरी वाणी और मेरे कार्य किस प्रकार के तुच्छ भावों से ग्रस्त हैं —यह मैंने जाना है और यह भी जाना है कि वे ऐसे हीन तुच्छ भावों से ग्रस्त क्यों है ? इसका कारण है अष्ट कर्मों की जड़ग्रस्तता जिसके अनेकानेक आवरणों ने मेरे आत्म-स्वरूप को आवृत्त बनाकर उसके स्वरूप को अपरूप बना दिया है। यह स्वरूप विकृति मेरे लिये कलंक रूप बन गई है । मेरी मूल महत्ता तो छिपी ही है, किन्तु मेरा पुरुषार्थ भी सुशुप्त हो गया है। मैं यह जान गया हूँ कि मेरी यह स्वरूप विकृति मेरी ही तुच्छता और हीन भावना के कारण हुई है । पदार्थ मोह में पड़ा हुआ मैं कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता हुआ अपने आत्म-स्वरूप को जड़ता से ढक रहा हूँ तो बाहर भी इन्हीं पदार्थों को प्राप्त करने की भाग-दौड़ में अपने मन, वचन एवं काया के योग व्यापार को जड़ता से १८ १
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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